सुमित्रानंदन पंत और देवुलपल्ली कृष्णशास्त्री : एक तुलना






सुमित्रानंदन पंत और देवुलपल्ली कृष्णशास्त्री :  एक तुलना

प्रो.एस.वी.एस.एस. नारायण राजू

पुर्णकुंभ, माई 2000   


    
                                         
    
               कवि सुमित्रानंदन पंत प्रकृति-प्रेमी हैं. उनकी रचनाओं में प्रकृति संबंधी सूक्ष्म एवं मार्मिक दृष्टि दिखाई देती है. आलंबन-रुप में प्रकृति का मनोज्ञ चित्रण उनकी रचनाओं में उपलब्ध होता है. वीणा गुंजनतथा पल्लव की कविताओं में आलंबन-रुप में प्रस्तुत प्रकृति चित्रण की प्रचुरता से पता चलता है कि वे प्रकृति के कितने गहरे उपासक हैं. उनके हृदय में प्रकृति के प्रति प्रेमभाव संस्कार रुप में स्थापित है. उनके प्रकृति प्रेम का यह पराकाष्ठा इन पंक्तियों में व्यक्त होता है.
छोड़ द्रुमों की मृदु छाया
तोड़ प्रकृति से भी माया
बाले! तेरे बाल जाल में कैसे उलझा दूं लोचन?
 भूल अभी से इस जग को!
 तजकर तरल तरंगों को
इंद्रधनुष के रंगों को
तेरे, भ्रूभंगों से कैसे बिंधवा दूं नीज मृग-समान?
 भूल अभी से इस जग को. (पल्लव. पृ.स. -37)

प्रेम के आलंबन-रुप प्रकृति के रुप-वैभव के साक्षात्कार से आत्म विभोर होकर कवि अपनी प्रेयसी कामिनी की उपेक्षा करने को भी उद्यत हो जाता है. प्रकति के विशाल क्षेत्र के अनुराग को छोड़कर, मानव सौंदर्य की संकुचित सीमा में बन्दी होना उन्हें पसन्द नहीं.
               तेलुगु के प्रमुख भाव कवि कृष्णशास्त्री की आरंभिक रचनाओं में प्रकृति के प्रति इसी प्रकार का मोह तथा प्रेम अभिव्यक्त मिलता हैं. पंत जी को जिस प्रकार कूर्मांचल प्रदेश के अनुपम प्राकृतिक सौंदर्य ने प्रभावित किया था वैसे ही कृष्ण शास्त्री जी को उनके जन्मस्थान के वन, उपवन, खेत तथा अन्य प्राकृतिक उपादन अधिक मात्रा में प्रभावित करते हैं. पंत जी के समान कृष्णशास्त्री भी प्रकृति के प्रति अपार अनुराग व्यक्त करते हैं, उनके लिए भी प्रकृति ही सब कुछ है. प्रकृति के मनोरम दृश्यों तथा अद्भुत सौंदर्य को देखकर वे मुग्ध हो जाते हैं.कृष्णपक्षमु की आकुलों आकुनै’ (पत्तों में पत्ती बनूं) रचना में प्रकृति के अनुपम सौंदर्य से आकृष्ट कवि अपने को उसी में विलय कर लेना चाहता है.
 इस वन में लुक जाऊं!
कैसे भी
 यहीं कहीं रुक जाऊं!
 पत्तों-पत्ती में बन
फूलों में फूल बनूं
 डालों में डाली बन
 नव किसलय मूल बनूं!
 इस वन में लुक जाऊं! .....(देवुलपल्ली कृष्णशास्त्री कृतुलु – आकलो आकुनै, पुव्वुलो पुव्वुनै/कोम्मलो कोम्मनै/नुनुलेत रेम्मनै / ईयडवि दागिपोन / एटृलैन / इचटने दागिपोन” – कृष्ण पक्षमु-पृ.सं.-1, हिन्दी अनुवाद-सूर्यनारायण भानू - तेलुगु आधुनिक काव्य-धारा-पृ.सं.91)

दोनों कवियों के उक्त उद्धरणों से यह प्रमाणित होता है कि पंत तथा कृष्णशास्त्री के हृदय में प्रकृति के प्रति अपार अनुराग भाव निहित है. जिस प्रकार पंत जी प्रकृति के साथ खेलना चाहते हैं, उसी प्रकार कृष्ण शास्त्री भूख प्यास सब कुछ भूलकर उसी वन में छिप जाना चाहते हैं. प्रकृति की समीपता ही उनके सौंदर्य बोध और काव्याभिव्यक्ति का प्रमुख उपादान है.
                कविवर पंत ने उच्छ्वास,’ ‘आंसू,’ ‘गृहकाज तथायाद आदि कविताओं में प्रकृति के उद्दीपनकारी स्वभाव पर प्रकाश डाला है. गृहकाज में अपनी प्रेयसी से गृहकार्यों को छोड देने का आग्रह करते हैं. इसका कारण यह है कि प्रकृति कवि में मधुर भावनाएँ भर कर उसे उद्दीप्त कर रही है—
आज रहने दो गुहकाज
प्राण रहने दो यह गृहकाज!
आज जाने कैसी वातास
छोडती सौरभ श्लथ उच्छ्वास
प्रिय लालस लालस वातस
जगा रो ओं में सै अभिलाष.” (पल्लविनी-पृ.सं.-161)

कृष्ण शास्त्री ने भी इस प्रकार उद्दीपन रुप में प्रकृति का चित्रण किया है.कृष्ण पक्षमु की एल प्रेमिंतुनु (क्यों प्रेम करता हूँ?) कविता में कृष्ण शास्त्री का कथन है, समस्त प्रकृति में अकारण तथा सहज प्रेम का जो व्यापार दृष्टिगोचर हो रहा है, उसे देख कवि का हृदय भी प्रेम करने के लिए उद्दीप्त हो जाता है-
सौरभ मुलेल चिम्मु पुष्पब्रजंबु?
चंद्रिकल नेल वेदजल्लु जंदमाम?
 एल सलिलंबु पारु? गाड्पुल विसुरु?
 एल न हृदयंबु प्रेमिंच निन्नु?” (दे. कृष्ण शास्त्री कृतुलु-पृ.सं.-28)

 अर्थात जैसे पुष्प सुगंधि बिखेरता है, चंद्रमा चांदनी छिटकाता है, सलिल प्रभावित हुए बिना नहीं रह जाता, वैसे ही उसका हृदय भी प्रेम किए बिना नहीं रह सकता, वह सहज ही प्रेम करना चाहता है.

          सुमित्रानंदन पंत ने स्वर्ण किरण में उषा-नारी का भारतीय संस्कृति के परिवेश में मनोहर चित्रण प्रस्तुत किया है –
वह पवित्रता-सी अभिषिक्त
सद्यःस्फुट शोभा में आवृत,
आई अरुणोदय मंदिर में,
पथ प्रकास का करने विस्तृत” (स्वर्ण किरण-पृ.स.-51)

यह भारतीय संस्कृति का प्राचीनतम प्रतीक है. जिस प्रकार सुन्दर सुरुचि पूर्ण पवित्र नारी प्रातः काल स्नान आदि से निवृत्त हो पूजा के हेतु मंदिर में जाती है, ठीक उसी प्रकार पूजा के समस्त उपकरण लेकर उषा-नारी के वक्षजों पर स्वर्ण-कलश (सूर्य) धर ज्वलित रश्मियों को अंजलि भरकर अरुणोदय- रुपी मंदिर में आई है. कृष्णशास्त्री की रचनाओं में मानवीकरण के सुंदर उदाहरण पाये जाते हैं. कुछ रचनाओं के शीर्षकों में ही कवि की इस प्रवृत्ति का संकेत मिलता है. तेटिवलपु (मधुप का प्रेम) विरिचेड (विकसित पुष्प कुमारी) चुक्कलु (नक्षत्र) आदि शीर्षक इसके लिए ज्वलंत उदाहरण हैं. कृष्ण शास्त्री अपनी उर्वशी में प्रेयसी को प्रकृति के विविध रुपों में देखते पाये जाते हैं कवि प्रेयसी से कहते हैं-तुम प्रथम उषा के ओस कणों की लतिका हो. तुम वर्षा और शरद के बीच आनेवाली संध्या कुमारी हो-

नीवु तो लि प्रोदुदु नुनुमंचु तीव सोनव
नीवु वर्षाश रत्तुल निबिड सगं
ममुन बोडमिन संध्या कुमारी....” (कुष्ण शास्त्री कृतुलु-पृ.सं 112)
 
            सुमित्रानंदन पंत और कृष्णशास्त्री के प्रकृति वर्णन में छिपी रहस्य भावना में भी काफी समानता है. दोनों कवियों ने प्रकृति के उपकरणों के माध्यम से इस अगोचर सत्ता के प्रति अपनी जिज्ञासा, प्रेम तथा श्रद्धा-को मनोहर शैली में व्यक्त किया है. इन दोनों कवियों को ईश्वर पर अपार विश्वास है. दोनों कवि लौकिक प्रेम में विफल होकर अनंत वेदना एवं विरह जन्य दुःख का अनुभव करते हैं प्रकृति के माध्यम से ईश्वर के प्रति अपने अनुराग को व्यक्त करने में दोनों कवि सफल हुए हैं. कविवर पंत ईश्वर से जग के ऊर्वर आंगन में, ज्योतिर्मय बरसाने की प्रार्थना करते हैं-
जग के ऊर्वर आंगन में
 बरसों ज्योतिर्मय जीवन!
बरसो लघु-लघु तृण तरु पर
है चिर अव्यय, चिर नूतन!”(पल्लविनी-पृ.स.136)
 कृष्णशास्त्री भी भगवान के पद-पंकजों के स्पर्श से आँसू को जाह्नवी के समान पावन बनाने की अभिलाषा व्यक्त करते हैं-
कलुष दुर्दांत पंक संकलित कुहर
मुल जनिंचु मदीयाश्रु मलिन धार
स्वामि भवदीय पाद देशमुन वारि
परम पावन जाह्नवी प्रीतम गाँचु. (कृष्ण शास्त्री कृतुलु-पृ.सं.69)
कृष्णशास्त्री का कहना है कि कलुष दुर्दांत पंक-कुहर से मेरी मलिन अश्रुधारा उमडी है. स्वामी मैं तुम्हारे पद-पंकजों में गंगा की शोभा पाऊंगा.
             कविवर सुमित्रानंदन पंत ने गुंजन में रुपक का प्रयोग किया है तडित-चकित चितवन से चंचल
कर सुर-सुभा अपार!
नग्न देह में सतरंग सुर धनु
छाया-पट पर सुकुमार
खोंस नील-नभ को वेणी में,
इंदु कुन्द-धुति स्फार
***
स्वर्ण में जलविहार जब
करती बाहुमृणाल.( गुंजन-पृ.सं.-94)

 स्वर्गंगा में जल-विहार करती हुई अप्सरा का चित्र काफी निखरा प्रतीत होता है. आकाश में चमकनेवाली चंचल विद्युत ही जैसे उस अप्सरा के कटाक्ष हों जो सुर सुभा को विचलित कर रही है. इन्द्र धनुष ही उसका झीना आवरण हो, नीला नभ ही उसकी वेणी हो जिस में इन्दु, कुन्द रुपी पुष्प गुंथे हैं  इन पंक्तियों में रुपक अलंकार का प्रयोग किया गया है. पंत जी के समान कृष्ण शास्त्री ने भी विविध प्राकृतिक उपादानों के आधार पर रुपक अलंकार का मनोज्ञ एवं सुन्दर प्रयोग किया है. तेटिवलपु (मधुप प्रेम)शीर्षक कविता में सांगरुपक का सुन्दर निर्वाह इस प्रकार पाया जाता है-
अलरु बडं तुलेल्लरु हिमांबुबुलुनु नव मल्लिका सतिनि
जलकमुलार्चिनारु वनजात पराग मलंदिनारु
जिलुगु होरंगु कों दलकु जीरलु गटिटनीरु
पुपुप्पोडुल नेत्तारुल जेर्चि बवमुंइ”.(दे.कृष्णशास्त्री कृतुलृ-पृ.सं-10)

इन पंक्तियों में रुपक अलंकार के रुप में प्रकृति का वर्णन करके कवि सुन्दर प्रेम  का निर्वाह प्रस्तुत करते हैं. मल्लिका पूष्प वधु है, भ्रमर वर है, तो अन्य पुष्प सहेलियाँ हैं, पंखुडियाँ हैं. इस प्रकार कवि प्राकृतिक उपादनों के माध्यम से सांगरुपक का सुन्दर प्रयोग करते हैं . इस प्रकार कृष्णशास्त्री की रचनाओं में रुपकों का आधिक्य है.

        दोनों कवियों ने भावों की सफल अभिव्यक्ति के लिए प्राकृतिक प्रतीकों का सहारा लेकर अपनी शैली को प्रभावात्मक तथा सुन्दर स्वस्थ किया है. इनके प्रतीक नवीन ही नहीं अपितु संवेदना-संपृक्त भी हैं. इतना ही नहीं प्रतीक विधान में इन कवियों ने नवीन राहों की उद्भावना भी की है. उपर्युक्त तुलनात्मक मूल्यांकन से यह तथ्य प्रकाश में आता है कि सुमित्रानंदन पंत और देवुलपल्ली कृष्णशास्त्री की कविताओं में उपलब्ध प्रकृति-चित्रण में वैषम्य की आपेक्षा साम्य ही अधिक है जो भारतीय साहित्य अंतर्लीन साहित्यिक  एवं सांस्कृतिक एकता का ज्वलंत उदाहरण प्रस्तुत करता है।      





            


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