आंध्र प्रदेश में हिंदी के पठन-पाठन की समस्याएँ






आंध्र प्रदेश में हिंदी के पठन-पाठन की समस्याएँ

                                     प्रो. एस.वी.एस.एस. नारायण राजू
हिंदी प्रचार समाचार
फरवरी, 2016   

        राष्ट्रभाषा, राजभाषा और संपर्क भाषा के रुप में देश के अधिकांश लोगों द्वारा हिंदी समादृत हुई है. आंध्र प्रदेश में हिंदी का प्रचार-प्रसार व्यापक तौर पर हो रहा है. कई सरकारी एवं गैर सरकारी संस्थाएँ आंध्र प्रदेश में हिंदी के प्रचार-प्रसार को प्रोत्सहान देने लगी हैं. हिंदी प्रचार सभाओं की स्थापना हुई. आंध्र के छात्र अपनी मातृभाषा और अंग्रेज़ी के साथ-साथ हिंदी का भी अध्ययन करने लगे. त्रिभाषा नीति के समर्थन में कई सरकारी शैक्षिक संस्थाओं ने समय-समय पर जो निर्णय लिए, उनके अनुसार आंध्र प्रदेश की पाठशालाओं और महाविद्यालयों में हिंदी के पठन-पाठन से संबंधित कई नियम लागू किये गये और पाठशालाओं, महाविद्यालयों और स्नातकोत्तर स्तर पर हिंदी भाषा एवं साहित्य के अध्ययन के लिए आवश्यक सुविधाएँ उपलब्ध करने के कई प्रयत्न हुए. हिंदी भारत की राष्ट्रभाषा है. भरतीय सभ्यता एवं संस्कृति के विविध आयामों तथा भारत के प्राचीन इतिहास से अवगत होने के लिए हिंदी की जानकारी प्राप्त करना आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है. इसमें कोई संदेह नहीं कि समेकित रुप में भारतीयता के स्वरुप को जानने-पहचानने के लिए हिंदी भाषा एवं साहित्य के इतिहास से भी परिचित होना आवश्यक है.

           हिंदी आर्य भाषा परिवार की प्रतिनिधि भाषा है. संस्कृत इसकी जननी है. पाली, प्राकृत तथा अपभ्रंश के रुप में विकसित होकर हिंदी वर्तमान में उत्तर भारत के अधिकांश राज्यों के लोगों की मातृभाषा के रुप में प्रचलित है. आंध्र प्रदेश के छात्रों में हिंदी के अध्ययन के प्रति विशेष रुचि होने के बावजूद हिंदी को सीखने में वे कई प्रकार की समस्याओं का सामना करने लगे. नैसर्गिक वातावरण से वंचित होने के कारण सहजता से हिंदी को सीखने में वे असमर्थ होने लगे. हिंदी का वातावरण केवल कक्षाओं तक सीमित रहा. छात्र जो कुछ हिंदी कक्षाओं में सीखते हैं वह साहित्यिक भाषा होती है. इसी कारण से दैनंदिन जीवन में उपयोगी कामचलाऊ भाषा से वे अपरिचित हैं. हिंदी में प्रचलित मुहावरों और लोकोक्तियों से भी वे अपरिचित रहते हैं. साग-सब्जियों, रिश्ते-नाते व अन्य साधारण शब्दों से भी उनका अपरिचित रहना एक समस्या है. स्नातक स्तर तक हिंदी सीखने के बावजूद, छात्र को यदि काशी जाना पड़े, तो वह अपने को अपने ही देश के विदेशी समझता है. चार कोस पर पानी बदले, आठ कोस पर बानी-यह उक्ति सत्य प्रमाणित होती है. 
   
        हिंदी समझी जानेवाली भाषा में उर्दू, फारसी तथा कई अन्य भाषाओं के शब्द विपुल मात्रा में व्यवहृत होने के कारण आंध्र प्रदेश के छात्र हिंदी को सीखने में समस्या का सामना करते हैं. कई आंचलिक शब्दों के अर्थ उपलब्ध कोशों में प्राप्त नहीं होते हैं. साधारण छात्रों के लिए ही नहीं, शोधार्थियों के लिए भी कोड मिश्रण तथा कोड परिवर्तन के संदर्भ में हिंदी में व्यवहृत शब्दों का अध्ययन करना कठिन प्रमाणित होने लगा है.

      मातृभाषेतर अन्य भाषा को सीखना निश्चय ही कठिन है प्रत्येक भाषा की अपनी प्रकृति होती है. शब्द संरचना को लेकर प्रत्येक भाषा अपने अलग अस्तित्व को प्रकट करती है. आंध्र प्रदेश के छात्र हिंदी के व्याकरण को समझने में कठिनाई महसूस करते हैं. विशेषकर प्रत्यय का प्रयोग करने तथा लिंग एवं वचन संबंधी नियमों से अवगत होने में वे कई समस्याओं का सामना करते हैं. इसके अलावा संस्कृत भाषा के कई शब्दों का, वे अपनी मातृभाषा में जिस अर्थ में प्रयोग करने के वे अभ्यस्त होते हैं, उन शब्दों का हिंदी में कई संदर्भों में भिन्न अर्थों में प्रयोग करने के अवसर पर कई त्रुटियों के प्रकट होने की संभावना बनी रहती है. इस दोष का निवारण करने के लिए हिंदी तथा अपनी मातृभाषा में प्रचलित समान रुपी भिन्नार्थी शब्दों की भी जानकारी छात्रों को प्राप्त करना आवश्यक हो जाता है.

         कई पाठशालाओं और महाविद्यालयों के ग्रंथालयों में हिंदी भाषा व साहित्य से संबंधित पुस्तकें अनुपलब्ध होती हैं. पाठ्यपुस्तकों की टीकाओं तथा तत्संबंधी पुस्तकें प्राप्त करने में कई समस्याओं का सामना  करना पड़ता है. प्रधान विषय के रुप में हिंदी का चयन कर स्नातक उपाधि प्राप्त करने पर रोजगार प्राप्त होने की न्यूनतम संभावनाएँ होने के कारण हिन्दी के अध्ययन की ओर छात्र आकर्षित नहीं होते. स्नातकोत्तर स्तर पर भी हिन्दी का अध्ययन करनेवालों की स्थिति यही रही. इन छात्रों को, कम से कम उनके अध्ययन काल में, सरकार की ओर से कोई छात्रवृत्ति देकर उन्हें प्रोत्साहन करने की कोई योजना लागू नहीं है. यदि कुछ योजनाएँ हैं तो भी उनसे लाभान्वित होनेवाले छात्रों की संख्या बहुत कम है. हिन्दीतर भाषी छात्रों को हिन्दी प्रांतों में यात्रा करने जो सीमित मात्रा में अनुदान देने की योजना है, उससे सीमित काल-परिसर में हिन्दी के व्यावहारिक ज्ञान को प्राप्त करने की बहुत कम संभावना बनी रहती है. सभी विद्यालयों में हिन्दी में निबंध लेखन व भाषण प्रतियोगिताएँ नियमित रुप से नहीं होने लगी. स्नातकोत्तर स्तर पर हिन्दी का अध्ययन करने और शोध उपाधि के लिए अनुसंधान करनेवालों की, हिन्दी भाषा एवं साहित्य पर वर्तमान में गंभीर रुप से काम करनेवाले विद्वानों व समालोचकों की उपलब्धियों से पूर्णतः अपरिचित रहने की दयनीय स्थिति है. इनके लिए हिन्दी साहित्य के सृजन व समीक्षा के संदर्भ मेंसमकालीनता तीस वर्ष पुरानी है. अद्यतन संपन्न शोध-कार्य से भी वे अपरिचित रहने लगे. जब तक किसी महत्वपूर्ण रचना को उनके पाठ्यक्रम में स्थान नहीं मिलता और उस रचना पर टीका व समीक्षा सामग्री नहीं मिलती, तब तक दक्षिण के सामान्य स्तर के छात्र उस रचना के व रचनाकार के नाम से भी परिचित नहीं होते. हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं के पर्याप्त मात्रा में अप्रचलन के कारण से भी हिन्दी साहित्य के विकास के वर्तमान चरण से वे परिचित नहीं होने लगे हैं. हिन्दी साहित्य का इतिहास हजारों वर्ष पूराना है. हिन्दी पद्य और गद्य साहित्य को सुसंपन्न एवं सुविख्यात बनानेनाली अनगिनत रचनाएँ हैं. हिंदी को विश्व भाषा के स्तर पर ला खड़ा करनेवाली रचनाओं के प्रणेता भी असंख्यक हैं. खेद की बात यह है कि आंध्र प्रदेश के हिन्दी छात्र चालीस व पचास हिन्दी रचनाकारों का नामोल्लेख मात्र कर सकते हैं.

          आंध्र प्रदेश में हिंदी के अध्ययन की स्थिति भी निश्चय ही संतोषजनक नहीं है. क्योंकि हिंदी भाषा की प्रकृति व व्याकरण के सामान्य नियमों से नितांत अपरिचित छात्रों को गंभीर रुप से प्राचीन तथा आधुनिक हिंदी काव्यकार और गद्यकारों की  प्रतिनिधि रचनाओं को पढ़ाना वास्तव में एक चुनौती है. पाठ्य ग्रंथों की बाजार में अनुपलब्धता के कारण छात्रों को पढ़ाना अत्यंत कठिन साध्य होता है. आंध्र प्रदेश में इन दिनों कई कार्पोरेट कालेजों में संस्कृत को द्वितीय भाषा के रुप में स्वीकार कर परीक्षा देनेवाले छात्रों को न्यूनतम अंक पचास्सी से नब्बे प्राप्त होने लगे. वे अपने प्रश्नों के जवाब तेलुगु, अंग्रेज़ी व संस्कृत में दे सकते हैं. ऐसी स्थिति में इंटरमीडियट की कक्षाओं में हिन्दी की द्वितीय भाषा के रुप में लेने के लिए कोई भी छात्र रुचि नहीं दिखाने लगे. इसका प्रभाव स्नातक और स्नातकोत्तर स्तर पर हिंदी के विभागों पर पड़ने लगा. ग्रंथालयों में हिंदी की पुस्तकों की अनुपलब्धि के कारण से भी हिंदी के अध्यापक नवीमतम उपलब्धियों से परिचित नहीं हो पा रहे हैं.

      वास्तव में हिंदी के अध्ययन और अध्यापन की इस स्थिति से भली-भाँति परिचित होने के बावजूद सरकार इस समस्या के निवारण हेतु कोई कदम नहीं उठाने लगी. हिन्दी के प्रचार-प्रसार में निष्ठा की कमी स्पष्टतः दिखाई देने लगी. जो छात्र विभिन्न विद्यालयों में हिन्दी का अध्ययन करने लगे, वे सतही तौर पर हिंदी सीखने तक सीमित होने लगे. हिंदी के पाठ्यक्रम को निर्धारित करने में जो नीति अपनायी जा रही है, वही अत्यंत अदूरदर्शीय एवं त्रुटिपूर्ण है. इस दिशा में कोई ईमानदान प्रयास नहीं होने लगे. हिन्दी के नाम पर नौकरी करनेवालों के लिए हिंदी भजन और भोजन की भाषा बनती जा रही है. इस प्रकार जो संगोष्ठियाँ अथवा कार्यशालाएँ  आयोजित होने लगीं, उनमें इस समस्या को लेकर विद्वान कहे जानेवाले प्रतिभागियों द्वारा जो विचार व्यक्त किये जाते हैं, उन्हें एक प्रतिवेदन के रुप में सारगर्भित रुप में तैयार कर पत्रिकाओं में उनका विशेष प्रचार कर समस्या की ओर लोगों के ध्यान को आकृष्ट करने तथा सरकार पर  दबाव डालने के प्रयत्न नहीं होने लगे. इस बात को लेकर मैं अपना खेद प्रकट करता हूँ.     

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