संवादों की ध्वन्यात्मकता और अधूरापन : शायद और हं:




संवादों की ध्वन्यात्मकता और अधूरापन  : शायद और हं:

                          प्रो. एस.वी.एस.एस. नारायण राजू

स्रवंति  - सितंबर - 2005   
                   
शिल्प के स्तर पर शायद बीज नाटक विसंगत नाटक की पाश्चात्य पंरपरा से ही नहीं भारतीय नाट्यकारों से भी एक अलग ही लीक पकडता है. इस बीज नाटक के संवाद अधूरे अवश्य हैं किंतु चरित्रों के उद्घाटन में अधिक  सक्षम भी हैं. इस बीज नाटक में शिल्प के स्तर पर महत्वपूर्ण प्रयोग संवादों को दोहराये जाते है. पीडा-बोध को अभिव्यंजित करने की दृष्टि से भी यें संवाद अत्यंत महत्वूपर्ण बन पडे हैं.शायद के संवादों में जो वाक्यावली प्रयुक्त हुई है वह बहुत कुछ आधे-अधूरे की याद दिलाती है. वाक्य अधूरे से हैं..... बिन्दुओं के भरोसे छोड दिये गये हैं फिर भी पाठक के मन को भरमाते नहीं है एक अतृप्ति देते हैं एक पीडा-बोध को जगा जाते हैं.

स्त्री        : थोडा टहल आते, तो मन बदल जाता.
पुरुष       : वह पाचिस........?
स्त्री        : रोज शाम को खाना खाते वक्त तुम्हारा मन उदास हो जाता है तिपाई से माचिस उठा कर उसे दे देती है.
पुरुष        : (सिगरेट सुलगाता हुआ) जाओ, प्लेटें रख आओ.
स्त्री        : तुम कुछ दिनों के लिए कही बाहर चले जाओ.... सच कह रही हूँ. पुरुष हूँ कहकर कुहनियों पर झुक जाता है.
पुरुष       : जहाँ तक बाहर जाने का सवाल है....... 
          स्त्री ट्रे उठाकर चल देती है. पुरुष शिकायत भर नजर से उसे जाते देखता रहता है. फिर सिगरेट के लंबे-लंबे कश खींचता है. स्त्री लौटकर आती है, तो वह उसकी तरफ नहीं देखता.
स्त्री        : तुम बाहर जाने की बात कर रहे थे........(अपने हाथ को देखती हुई) मेरे हाथ का एक्सीमा फिर उभर आया है.
पुरुष       : (हल्की खीझ के साथ) बाहर कहाँ चला जाऊँ? और कहीं भी जाकर क्या होगा?.....सब जगहें एक-सी हैं. सब जगह एक-सा लगता है. अब उसकी आँखे स्त्री की तरफ उठ जाती हैं, पर वह अपने हाथ को ही देख रही है.  
स्त्री        : उस मरहम से ठीक हो जाया करता था.... पर न जाने उसकी डब्बी......मैंने तुम से पहले भी कहा था, कुछ दिनों के लिए सूरत चले जाओं. (1) 

संवादों में संदर्भगत अन्विति भले ही न हो, किंतु वे जीवन की रगों में समती जाती पीडा, भय ऊब और रिक्तता को पूरी तरह स्पष्ट कर देते हैं. असल में मोहन राकेश ने जिंदगी को कई कोणों से देखा था और यह पाया था कि सब जगह कोई-न-कोई ऐसा बिंदु है जो दुखती रग की तरह है सब कहीं कुद ऐसा है जिसे छूने भर से एक चरमाहट के साथ पूरी की पूरी उदासी आवाज देने लगती है और एक झटके के साथ खालीपन का अहसास छाया की तरह पीछा करता दिखाई देता है.शायद में यही है, स्त्री और पुरुष दोनों पात्रों के माध्यम से इसी शायद की खोज की गई है. यह शायद ही मन की अनिर्णीत स्थिति है बैसे ही जैसे ऊब अव्याख्येय और रिक्तता अपरिभाषित. संवाद ही शायद बीज नाटक का प्राण है. संक्षिप्त और अधूरे संवाद पात्रों के अन्तर्द्वन्द्व को सफलता से उभारते हैं----- कुछ भी कर लो, खालीपन ज्यों का त्यों बना रहता है...... एक मजाक सा है जैसे........(2)

जीवन की रिक्तता को दूर करने के लिए अपने भीत से लेकर बाहर लोगों की भीडा तक  भटकनेवाले मनुष्य को खोज की निरर्थकता कितने सजीव रुप से निम्न संवाद में प्रकट की गयी है, पहले आदमी सोचता है कि उसके अंदर से कोई सार निकलेगा...... फिर सोचता है कि उसके अंदर तो नहीं है, पर कही-न - कहीं जरुर होगा... पर उन्हें भी जान लेता है तो पता चलता है कि कहीं कुछ नहीं है.... कहीं कुछ है ही नहीं.......”(3) नाटककार द्वारा निर्देशित रंग-निर्देश इस नाटक में बहुत महत्वपूर्ण हैं, विशेषतः अधूरे संवादों के साथ पात्रों की शारीरिक क्रियाओं के निर्देश जो संवादों से अधिक अर्थ-व्यंजन बन उठते है, जैसे पुरुष को ड्रेसिंग गाउन की जेबों में हाथ डालकर व्याकुलता से टहलना और स्त्री का अपने हाथ के एग्जीमा को बार-बार देखना. ऊब उदासीपन और घुटनभरी जिंदगी के माहौल में नगरीय परिवेश के परिवार की व्यथा-कथा का और उस परिवार के दोनों सदस्यों के मनः स्थितियों का सूक्ष्म विश्लेषण करने में शायद बीज नाटक में प्रयुक्त संवाद अत्यंत सफल बन पडे हैं.

    हं:बीज नाटक में शिल्प के सारे प्रयोग उसे वस्तुगत प्रयोगों के अनुरुप और उनकी अन्विति में अवश्य हैं. शायद के समान इस बीज नाटक के संवाद भी विसंगति के बोध को तीव्रता देते हैं. संवादों को दोहराकर उन्हें अधिक प्रभावशाली बनाया गया है. शायद बीज नाटक के समान हं: के संवादों में एक गति है, एक आवश्यक व आकर्षक संक्षिप्त है तभी तो वे कथ्य को भी घनता से उभारते हैं व्यंजित कर देते हैं और उस में रोचकता भी  भरपूर बनी रहती है जैसे

ममा : (सतर्क) कौन-सी-चिट्ठी है ?
पपा  : तुमने पढ़ी नहीं ?
ममा  : (हठ के साथ) कौन-सी-चिट्ठी ?
      पपा उसकी तरफ देखकर वही गले में घुटी हुई हँसी हँसता है.
पपा  :  वही...... जो नहीं आयी.
ममा  :  तो तुम समझते हो कि......
पपा  :  उठा लो नीचे से.समुझे नहीं देखना.
       ममा परास्त भाव से कुर्सी पर बैठ जाती है.
ममा  :  वह चिट्ठी नहीं है.
पपा  :  जो भी है..... पढ़ लो.
ममा  :  पढ़ ली है मैंने.
पपा   : क्या लिखा है?
ममा   :(सतर्क) किसने?
पपा    : जहाँगीर ने.
ममा  : वह जहाँगीर की चिट्ठी नहीं है.
पपा   : वहीं बात लिखी होगी उसने.....
ममा   : (उत्तेजित) मैं ने कहा है न, जहाँगीर की चिटठी नहीं है.
पपा   :  ... कि पपा को वेल्फेयर होम में भेज दो....यही लिखा होगा. फिर से
ममा  :  (क्रोध के साथ) मैंने कहा है न तुमसे कि.......?
पपा   :  हर बार यही लिखता है वह. पिछले छे महीने से चिट्ठी में उसने यही लिखा है.
ममा   : देखो, पपा........
पपा  :  पपा अब कूडा हो गया है. इसे डस्ट-बिन में पेंक देना चाहिए.”(4)

यह संवाद गत्यात्मक तो है ही, पात्रों की स्थिति और मनः स्थिति पर भी प्रकाश डालता है. संक्षिप्त होकर भी ये संवाद बडे प्रभावी बन पडे हैं. ये नाटक की मूल चेतना से संबद्ध हैं. इन में एक पीडा है जो जीवन व्यापी रिक्तता और निष्क्रियता के साथ अधिकाधिक उभरती गई है. इन बीज नाटकों की भाषा भी आम जबान की भाषा है, किंतु व्यंजना के कितने ही स्तरों को पार करती हुई एक नई अर्थवत्ता को संप्रेषित करती है. इस नाटक का अवलोकन करने पर अपनी सत्यता प्रकट कर देता है. तथापि इसकी अभिनेता निर्देशक तथा अभिनेताओं की सूझ-बूझ पर निर्भर करती है. वस्तुतः यह बीज नाटक भी शायद की भाँति एक विशेष दर्शक वर्ग की अपेक्षा रखता है. पर दोनों बीज नाटकों के दृश्यबंध, संवादों की ध्वन्यात्मकता और अधूरापन तथा स्त्री पात्रों की मनःस्थिति आधे-अधूरे की कथा वस्तु व शिल्प से अद्भुत साम्य रखते हैं. नाटक का अंत मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति के दिग्दर्शन के साथ होने के कारण बहुत मार्मिक बन गया है. वर्तमान के अंधेरे में कोई दिशा न मिलने पर व्यक्ति अतीत की बीता सुखद घटनाओं की स्मृति में आश्रय पाता है, पपा के अंतिम संवाद वर्तमान की पीडा और घुटन को भूलने का कितना करुण प्रयत्न है, कुछ हुआ था अठारह नवंबर को भी......याद नहीं क्या..... कोई आया था.... या किसी को आना था और नहीं आया था... याद नहीं...... (5) 

संवादों की अतिरिक्त सजगता ने भी इस बीज नाटक की प्रयोगधर्मिता को एक अलग आयाम दिया है. इस बीज नाटक के संवाद अधूरे होने पर भी ध्वन्यात्मक होकर अतिरिक्त प्रभाव की सृष्टि करने में सक्षम हैं. इन बीज नाटकों में अधूरे संवादों द्वारा दांपत्य जीवन पर छानेवाले मानसिक तनाव की प्रत्येक अनुभूति को शब्द देने का भी प्रयत्न है.

संदर्भ :

1.       अण्डे के छिलके अन्य एकांकी तथा बीजनाटक – मोहन राकेश – पृ.सं. 105-106
2.       अण्डे के छिलके अन्य एकांकी तथा बीजनाटक – मोहन राकेश – पृ.सं. 117
3.       अण्डे के छिलके अन्य एकांकी तथा बीजनाटक – मोहन राकेश – पृ.सं. 117
4.       अण्डे के छिलके अन्य एकांकी तथा बीजनाटक – मोहन राकेश – पृ.सं. 132
5.       अण्डे के छिलके अन्य एकांकी तथा बीजनाटक – मोहन राकेश – पृ.सं. 143
           

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