विभिन्न भाषा-साहित्यों का तुलनात्मक अध्ययन : कुछ प्रश्न





विभिन्न भाषा-साहित्यों का तुलनात्मक अध्ययन  :  कुछ प्रश्न

 प्रो. एस.वी.एस.एस. नारायण राजू

पूर्णकुंभ -  दिसंबर - 2001



          समय-समय पर तुलनात्मक अध्ययन के पक्ष- विपक्ष में कई बातें सुनने का अवसर मिलता है. कभी-कभी तुलनात्मक अध्ययन को सर्वश्रेष्ठ मानते हुए उसकी बडी तारीफ की जाती है तो कभी-कभी उसे गौण सिद्ध करते हुए भी विचार व्यक्त किए जाते हैं. इस अध्ययन-पद्धति के संबंध में मेरे मन में पहले से ही कई शंकाएँ हैं. मैंने अपनी सीमित बुद्धि के बल पर कई बार इन शंकाओं को निवृत्त करने का विफल प्रयास किया है. शोध-कार्य में मेरा कुछ अनुभव रहा है, कई वर्ष बीत गए. मगर मेरी शंकाएँ दूर नहीं हुईं. हमारे गुरुवर आचार्य पी. आदेश्वर राव जी अक्सर एक प्रमुख अंग्रेजी लेखक की इन पंक्तियों को उद्धत करते हैं After twenty years of writing I came to know that I have no talent for writing, by that time I become famous, so I have not left the profession. मैंने भी तुल्नात्मक अध्ययन के सहारे कई लेख प्रस्तुत किए. फिर भी इस अध्ययन पद्धति व इसकी उपादेयता के संबंध में कई प्रश्नों का उत्तर मुझे अभी तक नहीं मिला है.

            तुलनात्मक अध्ययन की उपलब्धियों के संबंध में अक्सर यही बात कही जाती है कि हमारे देश की राष्ट्रीय एकता, अखण्डता, भावात्मक ऐक्य संधान व सांस्कृतिक समरसता को पुष्ट करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण प्रयास किया जा रहा है. और यह भी कहा जाता है कि विभिन्न संस्कृतियों में अंतर्निहित मूलभूत तत्वों को पहचानने के लिए विभिन्न भाषा साहित्यों का तुलनात्मक अध्ययन करना आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य भी है. समीक्षकों का कहना है कि भारतीय भाषाओं का तुलनात्मक अध्ययन वास्तव में धीरे-धीरे व्यावहारिक आलोचना की एक नई शाखा के रुप में विकसित होने लगा है. तुलनात्मक अध्ययन के संबंध में छात्र-छात्राओं को पढ़ाते वक्त हम यही कहते हैं कि किन्हीं दो या दो से अधिक भाषाओं, दो से अधिक रचनाकारों व उनकी कृतियों को लेकर तुलना की जा सकती है. हम यह भी बताते हैं कि वास्तव में भारतीय साहित्य अपने में एक तुलनात्मक साहित्य है और एक अलग अनुसंधानात्मक प्रविधि के रुप में तुलनात्मक अध्ययन को मान्यता मिल गयी है. वास्तव में किसी एक विधा को लेकर या किसी एक भाषा के रचनाकार को लेकर शोध करना चाहें, तो भी अनिवार्यतः उस विधा के, उस समय के अन्य महत्वपूर्ण रचनाकारों व उनकी रचनाओं का भी अध्ययना किए बिना हम प्रामाणिक ढ़ंग से यह निर्धरित नहीं कर सकते हैं कि अमुख रचनाकार श्रेष्ठ हैं या उनकी रचनाएँ साहित्यिक गुणवत्ता की दृष्टि से अनुपम हैं. अनिवार्यतः उस समय की या पूर्ववर्ती रचनाकारों की कृतियों का भी सम्यक ज्ञान प्राप्त कर, विवेच्य रचनाकार की भी अन्य कृतियों का विशेष अध्ययन कर उनके गुण-दोषों पर प्रकाश डाला जा सकता है. तुलना वास्तव में साहित्यक अनुसंधान का एक अनिवार्य तत्व है. किन्हीं दो या दो से अधिक भाषा-साहित्यों या रचनाकारों की कृतियों का परिशीलन करते हुए किसी एक विशेष संदर्भ में उन में अद्भुत साम्य या वैषम्य लक्षित होता है तो हम यह निष्कर्ष निकालते हैं कि यह प्रवृत्ति भारतीय सांस्कृतिक समरसता का या अनेकता में एकता का व एकता में अनेकता का प्रतीक है. सामाजिक, साहित्यक व सांस्कृतिक धरातल पर विभिन्न भाषावर प्रान्तों की विशेषतओं को दृष्टि में रखकर विभिन्न भाषाओं के कवियों की जीवन-दृष्टि व उनके मूल्य-संकल्प को स्पष्ट करते हुए तुलनात्मक साहित्य का शोधार्थी यह निष्कर्ष निकालना अपनी उपलब्धि मानते हैं कि मात्र तुलनात्मक अध्ययन द्वारा ही विभिन्न धर्मों, संस्कृतियों, भाषाओं, क्षेत्रों व जीवन पद्धतियों में अंतःसलिला के रुप में प्रवाहित भारतीयता को पहचानना संभव है.

         विभिन्न विश्वविद्यालयों में भी इस दिशा में जो शोधकार्य संपन्न होने लगा है, उस का सर्वेक्षण करने पर यह प्रश्न मन में उठता है कि किस हद् तक राष्ट्रीय एकता व अखण्डता की सिद्धि इस से होने लगी है? विभित्र भाषाओं के रचनाकारों में साम्यों और वैषम्यों को तलाशने की प्रक्रिया में पूर्व निर्धरित मान्यताओं को तलाशने की प्रक्रिया में पूर्व निर्धारित मान्यताओं को दूर रखकर प्रत्येक रचनाकार की संवेदना को उन्ही की रचनाओं के आधार पर परखने का प्रयास किस हद तक किया जा रहा है? विभित्र भाषाओं के रचनाकारों की कृतियों का तुलनात्मक अध्ययन करते समय एक ही देश के या एक ही समय के या एक समान साहित्यिक आन्दोलनों से संबद्ध होने के नाते इन की अनुभूतिगत एवं अभिव्यंजनागत विशेषताओं में साम्यों व वैष्मयों को ढूँढ निकालने की अनिवार्यता के कारण परिसर की सीमितता की समस्या उत्पन्न हो जाती है, समीक्षक या अनुसंधाता खुलकर अपने विचार व्यक्त नहीं कर सकता है और मौलिक समीक्षात्मक-दृष्टि लेकर प्रत्येक रचना के अंतस को छू नहीं सकता है.

1.     पूर्व घोषित एक विशेष प्रयोजन की सिद्धि को लेकर विभिन्न भारतीय भाषा-साहित्यों व रचनाकारों की उपलब्धियों का अध्ययन करना कहाँ तक वैज्ञानिक है? इस प्रक्रिया में प्रयोजन की सिद्धि की घोषणा पहले ही की जा रही है और प्रयास बाद में.
2.     हिन्दी और तेलुगु के प्राचीन व आधुनिक साहित्य की तुलना की दिशा में अद्यतन संपन्न शोध-कार्य का सर्वेक्षण करने के उपरान्त यह प्रश्न मन में उठता है कि (अ) बाह्य एवं आंतरिक प्रभावों का ग्रहण (आ) क्षेत्रगत भिन्नताओं के बावजूद रचनाकारों के प्रेरणाश्रोंतों में एकरुपता (इ) युगीन संदर्भों के प्रति रचनाकारों की प्रतिक्रिया (ई) सामयिक चेतना का अंकन (उ) पूर्व निर्धरित साहित्यिक मान्यताओं की स्वीकृति व अस्वीकृति आदि को तुलनात्मक साहित्य-समीक्षा की कसौटी मानने की परम्परा चली आ रही है और समीक्षक की दृष्टि एकांगी होने लगी है. इसे राष्ट्रीय अनुष्ठान के रुप में मान्यता देकर कुछ महत्वपूर्ण निष्कर्ष निकालने की आतुरता में समीक्षक उन महत्वपूर्ण तथ्यों पर अपनी दृष्टि केंद्रित करने में असफल होने लगा है जो रचना की मौलिकता व रचनाकार की संवेदना के स्पष्ट परिचायक होते हैं.

3.     यदि उत्तर और दक्षिण की विभिन्न भाषाओं और संस्कृतियों में अभिन्नता की स्थापना तुलनात्मक अध्ययन का लक्षण है तो क्या इसकी प्राप्ति के लिए विभित्र भाषाओं की कृतियों में पायी जानेवाली प्रवृत्तियों में सारुप्यता का अन्वेषण करना ही एक मात्र साधन है? मैं यह जानना चाहता हूँ कि इसे अनिवार्य शर्त के रुप में स्वीकृति देना कहाँ तक न्याय संगत है? वैषम्यों को उजागर करते वक्त शोधार्थी यह दावा करते हैं कि इतनी सारी भिन्नताओं के होने के बावजूद भी इन भाषा-साहित्यों में व इन लेखकों की अलग-अलग विचारधाराओं में भी भिन्नत्व में एकत्व को निरुपित करनेवाली सांस्कृतिक एकसूत्रता सुदृढ़ रुप में प्रतीत होती है.

4.     वर्तमान में हिन्दी और तेलुगु के आधुनिक साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन करते हुए विश्वविद्यालयों में समर्पित अधिकांश शोध कार्यों में अलग-अलग अध्यायों के अंतर्गत एक-एक भाषा साहित्य की परिचायात्मक समीक्षा को महत्व देकर अंतिम अध्यायों में एका-एक भाषा तुलनात्मक निष्कर्ष निकालने का प्रयास किया जा रहा है. इस संदर्भ में प्रश्न यह उठता है कि इस से तुलना की बात छोड दीजिए, कम-से-सम पृथक रुप से उन रचनाओं का स्वतंत्र एवं गहन अध्ययन भी संपन्न नहीं हो रहा है.

5.     विभित्र साहित्यों में अभिव्यत्क मानव-चेतना को एकरुपता के निर्धारण को तुलनात्मक अध्ययन का लक्ष्य घोषित किया गया है. प्रत्येक रचनाकार अपनी कृतियों में युगीन संदर्भों के अनुरुप विभिन्न जीवन-स्थितियों की युगीन संदर्भें के अनुरुप विभिन्न जीवन- स्थितियों की समीक्षा करते हुए नए मूल्यों की प्रतिष्ठा का आग्रह करता है. इसका संबंध उस भाषा-विशेष से कभी नहीं होता जिस में वह रचनाएँ करता है. यहाँ भाषा एक साधन मात्र है कुछेक संदर्भों में ह्रासमान जीवन-मूल्यों का निरीक्षण करते हुए रचनाकार यथार्थ के धरातल पर युगीन स्थितियों का अंकन कर वर्तमान की दुर्दशा पर चिन्ता व्यक्त करते हैं, ऐसे संदर्भों में भी रचनाकार के विचारों का आधार सर्वथा मानवीय होता है. प्रत्येक रचना में अनिवार्यतः प्रत्यक्ष व परोक्ष रुप से कवि या लेखक अपने उन विचारों को अभिव्यक्ति देते हैं जो नितांत मानवीय होते हैं. मानव चेतना सर्वत्र एक ही रुप में अभिव्यंजित होती है. विभिन्न साहित्यों में अभिव्यक्त मानव-चेतना की एकरुपता को विशेष प्रयत्न के द्वारा निरुपित करने के लिए तुलनात्मक अध्ययन को ही एक मात्र एवं महत्वपूर्ण साधन के रुप में स्वीकार करने की आवश्यकता क्यों महसूस होती है?

6.     बताया जाता है कि भारत के विभिन्न साहित्यों में जो समानंतर गतिविधियाँ मिलती हँ, तुलनात्मक अध्ययन के द्वारा उनके मूलभूत कारणों को जानना आवश्यक है. केवल साहित्यिक क्षेत्र में ही नहीं, अन्य क्षेत्रों में भी युगानुरुप कई विचारधाराएँ बनती- बिगडती है और भाषागत, क्षेत्रगत व सांस्कृतिक क्षेत्रों में भी कई परिवर्तन होते रहते हैं. परिवर्तन की यह प्रक्रिया निरन्तर गतिशील होती है. गतिशील जीवन्त संदर्भौ के अनुरुप साहित्यकारों की विचार-सारणि में भी आमूल परिवर्तन होता रहता है. साहित्यकार की मूल्य-दृष्टि चिरन्तन होती है. इसे देश-काल विशेष से जोडकर परखने की आवश्यकता नहीं है. इससे प्रत्येक रचना में अभिव्यंजित मूल्यों के चिरन्तन संदर्भों को समझने में धिक्कत होती है. समानंतर गतिविधियों की उपलब्धि, विशेष-दर्शन की अभिव्यक्त व भावगत एवं कलागत विशेषताओं की एकरुपता को निरुपित करने के उद्देश्य मात्र को लेकर विभित्र भाषाओं के साहित्यों का तुलनात्मक अध्ययन करने से समीक्षक की लक्ष्यसिद्धि तो होती है किन्तु मूल रचना की निजी विशेषताओं को पहचानने में बाधा उत्पन्न होती है.

7.     दक्षिण के शोधर्थी हिन्दी में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त करके शोध-कार्य में प्रवृत्त होते हैं. हिन्दी उनकी मातृ-भाषा नहीं है. वे अपनी मातृ-भाषा तेलुगु, तमिल, कन्नड या मलयालम का भाषा ज्ञान मात्र रखते हैं. हिन्दी व अपनी मातृ-भाषा के किन्हीं दो या दो से अधिक रचनाकारों की तुलना करके वे शोध प्रबन्ध प्रस्तुत करते जा रहे हैं. किसी एक रचना की साहित्यिक गुणवत्ता को पहचानने व प्रामाणिक ढंग से निरुपित करने के लिए उसकी भाषा पर विशेष अधिकार होना चाहिए, जिसके लिए हम स्नातकोत्तर स्तर पर भाषा का भी अध्ययन कर लेते हैं तो तुलनात्मक अध्ययन के संदर्भ में अनुसंधाता को अपनी मातृ-भाषा में रची गयी कृतियों का समग्र विश्लेषण करने की क्षमता कैसे प्रात्प होने लगी है? शैक्षिक रुप से अपने को योग्य सिद्ध किए बिना क्या वह अपने अनुसंधान के प्रति न्याय कर सकता है?

8.     भाषा-वैज्ञानिक दृष्टि से किन्हीं दो या दो से अधिक भारतीय भाषाओं का भी तुलनात्मक अध्ययन किया जा रहा है. दो भिन्न भाषा परिवारों की प्रतिनिधि भाषाओं के रुप में आलोच्य भाषाओं के उद्भव एवं विकास के विविध चरणों पर प्रकाश डालकर यह प्रामाणिक ढंग से निरुपित करने का प्रयास किया जाता है कि अनेक भाषा वैज्ञानिक गुत्थियों के सुलझाने में सहायता मिलेगी. इस में कोई संदेह नहीं. ध्यान देने योग्य बात यह है कि भारत जैसे बहु भाषा-भाषी देश में अन्य भाषाओं के विकास की गति विधियों का अध्ययन किये बिना किसी एक भाषा के विकास का पृथक रुप से समग्र विश्लेषण प्रस्तुत नहीं किया जा सकता है. यहाँ विश्लेषण के आधारभूत तत्व के रुप में तुलना को स्वीकार करना आवश्यक है.

9.     प्राचीन अथवा आधुनिक साहित्य में गुँफ्ति समान कथा-प्रसंगों का संधान भी तुलनात्मक अनुसंधान पद्धति का लक्ष्य माना गया है. कथा प्रसंगों के अंतर्गत विभिन्न धर्मों से संबद्ध पौराणिक मिथकों, दृष्टांतों तथा अन्योक्तियों का विवेचन रहता है. इसी प्रकार शिल्प वैज्ञानिक पद्धति के द्वारा भी तुलनात्मक साहित्य का अध्येता विभिन्न भाषा साहित्यों में विद्यमान भाषिक प्रयोगों का विशेलषण कर इस रहस्य का उद्घाटन करता है कि इन साहित्यों में अद्भुत समानता मिलती है. इन दोनों संदर्भों में पुनः यही प्रश्न उठता है कि साम्यों तथा वैष्मयों के निर्धारण पर ही समीक्षक की दृष्टि केंद्रित होती है और प्रत्येक रचना के विवेचन के संदर्भ में रचनाकार के चिन्तन पक्ष व सृजन पक्ष की खूबियों व खामियों, रचनाकार की संवेदनशीलता व रचना की अभिव्यक्तिगत मौलिक विशेषताओं का तटस्थ विश्लेषण समग्रतापूर्वक वह नहीं कर सकता है.

      तुलनात्मक-साहित्य की अपनी एक स्वतंत्र सत्ता है. कुछ समीक्षकों की मान्यता है कि यह अध्ययन सांस्कृतिक व ऐतिहासिक पक्षों के विश्लेषण के संदर्भ में व्यावहारिक आलोचना करने की कोशिश करता है. वस्तुतः तुलनात्मक साहित्य शास्त्रीय अध्ययन का बडा ही उलझा हुआ क्षेत्र है. तुलनात्मक साहित्य का क्षेत्र राष्ट्रीय भ्रान्तियों तथा परासांस्कृतिक व्याख्याओं तक फैला हुआ है. परस्पर विरोधी प्रवृत्तियों तथा प्रसरणशील क्षेत्र की वजह से तुलनात्मक साहित्य एक स्वतंत्र विधा होने का दावा नहीं कर सकता है. विभिन्न भाषाओं के साहित्यों के तुलनात्मक अध्ययन को मोटे तौर पर प्रभाव-विश्लेषण की कोटि में रखा जा सकता है. विभिन्न भाषाओं में रची गयी कृतियों का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत करते हुए किसी एक भाषा-साहित्य की उपलब्धयों व साहित्य सौरभ को राष्ट्रीय स्तर पर विखेरना यदि हमारा लक्ष्य है तो इसकी प्राप्ति के लिए तुलनात्मक शोध की अपेक्षा अनुवाद-कार्य को एक सशक्त साधन के रुप में स्वीकार करना अत्यधिक समीचीन प्रतीत होता है. जब तक तुलनात्मक साहित्य व तुलनात्मक अनुसंधान से जूडे हुए प्रावधिक प्रश्नों का उत्तर नहीं मिलता है तब तक इस दिशा में तुलनात्मक साहित्य के अध्येता ईमानदारी व विश्वास के साथ कार्य-सम्पन्न नहीं कर सकता है. 




Popular posts from this blog

वैज्ञानिक और तकनीकी हिंदी

“कबीर के दृष्टिकोण में गुरु”

लहरों के राजहंस और सुंदरी