विरोधी परिस्थितियों से लड़नेवाली व जीवन को सुधारनेवाली स्त्री का सफल चित्रण : छिन्नमस्ता
विरोधी परिस्थितियों से लड़नेवाली व जीवन को सुधारनेवाली स्त्री का सफल चित्रण : छिन्नमस्ता
प्रो. एस.वी.एस.एस. नारायण राजू
Bhava
veena, Special issue Vol. I. Dec 2018.
Issn
No, 2456-4702
UGC
Approved Journal No. 42500.
छिन्नमस्ता प्रभा खेतान की सबसे
प्रमुख उपन्यास है । इसमें प्रिया का चरित्र एक सशक्त , संघर्षशील
तथा सुधारवादी दृष्टिकोण से युक्त स्त्री के रूप में उभरी है । धनी मारवाड़ी
परिवार में जन्मी प्रिया बचपन से ही उपेक्षा का शिकार है । माँ बनने के बाद भी
प्रिया की ज़िन्दगी में कोई परिवर्तन नहीं आया । मन बहलाने के लिए किया गया
व्यापार ही उसकी आसरा बन जाती है । वह नयी राह पर चल पड़ती है । बची ज़िन्दगी अपनी
इच्छानुरूप जीने के लिए । सामाजिक बन्धनों को तोड़ने की कोशिश करती है । उपेक्षित
प्रिया को दाई माँ ने प्यार दुलार से पाला - पोसा थी । दाई माँ एक ऐसी गोद थी , जिसके
सहारे प्रिया सारी दुःख दर्द को भुलाने की
प्रयास करती थी । समस्त उपन्यास में नया परिस्थितियों के कारण निरंतर टूटती है , बिखरती
है लेकिन हार नहीं मानती । वह पुरुष से तथा पुरुष प्रधान समाज से संघर्ष करके अपनी
अस्मिता की रक्षा करती है । समाज में अपनी पहचान बनाने में सफल होती है ।
पीडा और
त्रासदी से झुलकर भी जिन्दा है और सारी विरोधी परिस्थितियों से लड़ने के लिए उसमें
हिम्मत और आत्मविश्वास है । यथा “मैने
दुख झेला है । पीडा और त्रासदी में झुलसी हूँ । जिस दिन मैने त्रासदी को ही अपने
होने की शर्त समझ लिया , उसी
दिन , उस
स्वीकृति के बाद मैंने खुद को एक बडी गैर जरुरी लडाई से बचा लिया । कुछ के प्रति
यह मेरा समर्पण था । सारे जुल्मों के सामने .... सलीब पर लटकते मैंने पाया कि में
अब पूरी तरह ज़िन्दगी की चुनौतियों का सामना करने के लिए तैयार हूँ । (1)
इस
प्रकार प्रिया हालातों से समझौता न करते हुए भी एक सफल नारी के रुप में सामने आती
है । भारतीय परंपरा में निरंतर स्त्री को प्रेम , समर्पण आदि महान बातों में फंसाकर
घर में बिठाया गया है । नरेन्द्र भी प्रिया के समक्ष प्रेम , ईमानदारी
, समर्पण
की बात रखकर उसे चारदीवारी के अंदर कैद करना चाहता है । उन दिनों नरेन्द्र और
प्रिया का जो संवाद है, वह अत्यधिक महत्व है , जो सदियों से इन शब्दों के
सहारे किस प्रकार स्त्री की बली चढाई जाती है , यह स्पष्ट करता है और साथ में
आज की जागृत स्त्री प्रिया , इन सबके
प्रति क्या विचार रखती है , यह
भी स्पष्ट होता है । नरेन्द्र कहता है कि -
“यानी
आपसी ईमानदारी , वफादारी
, प्यार
समर्पण . . . . . यह सब कुछ नहीं ?
" कुछ नहीं । सच कहू नरेन्द्र ये
शब्द भ्रम है ।
“औरत को यह सब इसलिए सिखाया जाता है कि , वह इन शब्दों के चक्रव्यूह से कभी नहीं निकल पाए , ताकि युगों से चली आती आहुति की परंपरा को कायम रखे”(2)
“औरत को यह सब इसलिए सिखाया जाता है कि , वह इन शब्दों के चक्रव्यूह से कभी नहीं निकल पाए , ताकि युगों से चली आती आहुति की परंपरा को कायम रखे”(2)
प्रिया आधुनित स्त्री की प्रतिनिधि है जो गुलामी की जंजीरों को
तोड़ने के लिए आतुर है और संघर्षरत है ।
प्रिया अपने व्यवहार में जो तरक्की कर रही है , वह नरेन्द्र को पसंद नहीं ।
उनमें अहम् की भावना है । पुरुष होने के नाते वह अपने को हर चीज़ की अधिकारी समझता
है । ऐसे में पति - पत्नी का जो पवित्र रिश्ता है , वह मालिक - गुलाम की तरह बन
जाता है । नरेन्द्र प्रिया की अवहेलना करता है । वह कहता है कि , प्रिया
नारसिस्ट है , महत्वाकांक्षी
है । जब स्त्री धन कमाने लगी तथा अपने पैरों में
खड़े होने में समर्थ हुई तब पुरुष मानसिकता इसे सहन नहीं करता । प्रिया कहती हैं
कि - " क्या महत्वाकांक्षी होना अपराध है ? क्या तुम रुपया नहीं कमाते ? दिन
- रात कान के पास फोन लगाए शेयरों के भाव । इसको लिया , इसको
बेचा । तुम्हें मेरे रुपए से क्यों जलन हो रही हैं नरेन्द्र ? तुम
साल में एक करोड़ कमाते हो जबकि में पांच से सात लाख ! क्या तुम फिक्की के
प्रेसिडेंट नहीं होना चाहते , क्या सभा सोसायटी के मंच पर
बैठकर गले में हार नहीं पहनते?”(3)
महत्वाकांक्षी होना एक इंसान की
हक़ है । पुरुष की महत्वाकांक्षी होने पर कोई सवाल नहीं करता । लेकिन जब एक स्त्री
महत्वाकांक्षी बनकर अपने भाग्य खोजने के लिए आगे आती है तो , उसे
दबाने के लिए पुरुष सभी मोहरों को जुटाता है । यहाँ प्रिया के जरिए प्रभा खेतान ने
ये बताने की कोशिश किया हैं कि , प्रतीक्षा ही मनुष्य को जिन्दा
रखने में सहायक बनती
है । यह उपन्यास एक अकेली सफल उद्योगकर्मी
स्त्री के अतीत को प्रस्तुत करती है । चलते चलते एक लंबे सफर में वह एक पड़ाव पर
आकर शिथिलता महसूस करती है और पीछे मुड़कर
देखती हैं तो पाती हैं एक लंबा अतीत उलझा - सा उसके साथ - साथ चलता रहा है , उसके
व्यक्तित्व की परछाई से उलझा । उसका जीवन उसे विरोधाभासी परिस्थितियों का उलझा - सा बंडल प्रतीत होता है
। यथा - " परिस्थितियों का प्रभाव मुझ पर पड़ा और वापस मैंने अपनी जिन्दगी की
जरूरत के अनुसार नई परिस्थितियों गढ़ ली ।
कितना चमत्कृत करता है अपनी खुद की नियति का स्वीकार उस समय , जब
आपको लगता है कि , अब
आप परिस्थितियों के हाथ की कठपुतली मात्र नहीं है ? उस विराट की प्रक्रिया में कैसे
हमारे छोटे छोटे प्रयास मिलते चले जाते हैं , यह भाव ही हमें कितना बड़ा
आत्मविश्वास देता है ?”(4)
प्रभा खेतान की नायिका अपने
तकदीर बदलने की जिद में बहुत आगे निकल जाती है । प्रिया को संघर्षों ने जिद्दी बना
दिया था , अपनी
राह पर चलती हुई वह रिश्तों में सतहीपन और बनावट स्वीकार नहीं कर पाती । ।
प्रसिद्ध उद्योगपति श्री साँवरलाल गुप्ता की हत्या की जाती है , उनकी
लाश सोनागादी के बाथहाऊस में मिलती है । उस भले आदमी पर इल्ज़ाम लगाया जाता है कि , उन्होंने
आत्महत्या की है । इस तरह पति की मौत हो जाने पर कस्तुरी बौखला हो उठती है । वे
अचानक शेरनी जैसी गर्जती हैं - " नहीं वे मरे नहीं , उन्हें
मार डाला गया । मेरा घर उजाड़नेवालो । तुम सब भी तड़प - तड़पकर मरोगे”.(5)
यहाँ पति की मृत्यु हो जाने पर पत्नी के
विद्रोही रूप को दिखाया गया है । प्रिया को हमेशा अपनी माँ से दुत्कार सहनी पड़ी ।
दिखने में सावली रंग प्रिया को माँ कभी प्यार न कर सकी । अपने ही संतान के प्रति एक स्त्री कैसे
उपेक्षा भाव स्वीकार कर सकते हैं ? इसका सच्चा चित्रण यहां मिलता
है । मां हमेशा सरोज के लिए चितित है , उसकी
शादी को लेकर कई सपने सजाते हैं । लेकिन प्रिया के लिए उसके मन में कोई आशंका नहीं
, व्यथा
नहीं । प्रिया के मन में विद्रोह का पहाड़ टूट पड़ता है । यथा । " सरोज के
लिए तो कोई ' ना
' नहीं
करेगा पर यह प्रिया । भगवान ही मालिक हैं . . . . कौन ले जाएगा इसे ?
"
मेरा मन विद्रोह कर उठता - न ले जाए कम्बख्त , कोई
न ले जाए । मुझे किसी की ज़रूरत नहीं । अब में विद्रोही होती जा रही थी” (6)
| वह
विद्रोहिणी बनती जा रही थी और इन विपरीत स्थितियों से संघर्ष करके आगे बढ़ने के
लिए कोशिश भी करती है ।
कई
साल बाद हवाई जहाज़ में असीम मिलते हैं । जो अपने कॉलेज के समय में प्रिया से
प्यार करता था । असीम कहता है कि , ' इंडिया टुडे ' में
तुम्हारे बारे में पढ़ा । तुम हमेशा विद्रोहिणी रही हो । इस पर प्रिया कहती हैं -
असीम ! विद्रोह की भाषा मैं भूल चुकी हूँ ।
मैं ज़िन्दगी में क्रान्ति चाहती हूँ । मैंने
अपनी ज़िन्दगी की तारीख खाली पन्नों पर खुद लिखी हूँ” (7)
प्रिया को असीम की आंखों में
वही पुरानी प्यास दिखती हैं । शायद , वह उस सपने को , प्यास
को जिलाए रखा हुआ है , ऐसा
प्रिया को लगता है । प्रिया के मन में उसके प्रति कोई कातरता उत्पन्न नहीं होती , क्योंकि
अब वह ज़िन्दगी की चालों से परिचित हैं । ज़िन्दगी की असली - नकली चेहरों से वह अब
वाकिफ़ है । बड़े भाई के बार - बार बलात्कार करने से प्रिया के मन में घृणा का
तूफ़ान उठती । वह धीरे - धीरे पुरुष जाति से नफ़रत करने लगती है ।
इस
प्रकार प्रभा खोतान ने विरोधी परिस्थितियों से लड़नेवाली व जीवन को सुधारनेवाली
स्त्री के रुप में प्रिया के चरित्र का सफल चित्रण किया है.
1. प्रभा
खेतान - छिन्नमस्ता – पृ. सं. 9
2.
प्रभा खेतान - छिन्नमस्ता – पृ. सं 11
, 12
3.
प्रभा खेतान - छिन्नमस्ता – पृ. सं 13
4.
प्रभा खेतान - छिन्नमस्ता – पृ. सं 21
5.
प्रभा खेतान - छिन्नमस्ता – पृ. सं 33
6.
प्रभा खेतान - छिन्नमस्ता – पृ. सं 61
7. प्रभा
खेतान - छिन्नमस्ता – पृ. सं 97