युगचेता निराला
कहना है कि यद्यपि मनुष्य पूर्णतः आदर्शवादी नहीं बन सकता फिर भी उसे आदर्श का अधिक से अधिक अनुसरण करना चाहिए. आदर्श के नियामकों का यही लक्ष्य भी है.
निराला ने जीवन के विविध पक्षों पर जमकर लिखा. काव्य ग्रन्थों में
परिमल, अनामिका, अणिमा, बेला, नये पत्ते, कुकुरमुत्ता, अर्चना, आराधना और गीत
गुंज, उपन्यासों में अप्सरा, अलका, निरुपमा, प्रभावती, चोटी की पकड, काले कारनामे आदि, कहानियों में लिली, सखी, देवी, सुकुल की बीवी, चतुरी चमार आदि संग्रह; रेखाचित्रों में बिल्लेसुर बकरिहा और कुल्ली भाट, निबंधों में ‘प्रबन्ध-प्रतिमा, प्रबंध पद्म, चाबुक, चयन संग्रह और अनुवादित अनेक ग्रंथ, अप्रकाशित एवं प्रकाशित लेख, इन सभी में निराला जी की एक विशिष्ट विचारधारा बड़े स्पष्ट एवं सबल रुप में प्रकट होती है. राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक एवं साहित्यिक क्षेत्र में निराला ने अपने क्रांतिकारी विचारों द्वारा नए मानदण्ड स्थापित किए. ये विचार न केवल क्रांतिकारी हैं; वरन् रचनात्मक भी है. समाज साहित्य, धर्म और राजनीति संबंधी उनके अत्यन्त उग्र, तप्त एवं कुछ ध्वंसात्मक रुप के विचारों की तुलना शिव के तांडव नृत्य से हो सकती है. समाज की अत्यन्त गंभीर समस्याओं का हल उन्होंने साहित्य द्वारा ही सुझाया है. सामाजिक एवं धर्मिक क्षेत्र की तरह सहित्यिक क्षेत्र में भी किसी परम्परागत विचार, रुढ़ि एवं नियमों का पालन निराला ने नहीं किया.
उनका साहित्य सदा समाज, राष्ट्र और मानव जाति के प्रति सचेत रहा. मानव धर्म का स्वातंत्र्य ही उनका लक्ष्य रहा. साहित्य और साहित्यकार को उन्होंने संसार की किसी भी अमूल्य वस्तु से कम नहीं समझा. साहित्य उनके लिए
सर्वोपरि था और साहित्यकार सर्वेसर्वा. निराला ने भारतवर्ष की दरिद्रता से जोड़कर
जिस रुप में ऐसी अद्वितीय व्याख्या व्यक्त की वह उनके जैसे महाप्राण कवि के द्वारा ही संभव थी.
“अभी तो दरिद्र भारत के नेता भी धनी हैं.
जहाँ नेता लोग पूर्ण त्याग नहीं कर सकते,
वहाँ अनुयायी अथवा धन के बडे-बडे उत्तराधिकारी कैसे वह अधिकार छोड़ देंगे......वह देश यदि दरिद्र है,
तो यह ठीक ईश्वर का,
दिए हुए अधिकारों के दुरुपयोग का चुस्त बैठता,
उत्तर है.... अधिकार वाद की
इसी पतित दशा में इस समय भारत है.”
साहित्य की तरह सामाजिक क्षेत्र में उनके विचारों ने क्रांति की.
समाज के तमाम दकियानूसी रीति-रिवाजों पर वे कबीर की तरह बरस बड़े. जाति-पाँति के बंधन उन्हें कभी मान्य नहीं थे. वर्ण-भेद को उन्होंने जगह-जगह धज्जियाँ उड़ाई हैं. दो हजार वर्षें के हिन्दू समाज के पतन का खाका खींचते हुए
उन्होंने समाज में व्याप्त गन्दगी और सडांध के सभी कारणों की चर्चा की है और उनके सुधार के उपाय सुझाये हैं. वे एक ऐसे आदर्श समाज की कल्पना कर रहे थे जिसमें वर्ण के आधार पर उच्च नीच का निर्णय न हो. निराला ने उन सभी जातियों के चरम उत्थान के स्वप्न देखे थे जो सदियों से पददलित रहीं. शूद्रों के उत्थान में उनका अटूट विश्वास था. इसी तरह नारी के उत्थान में भी. नारी का स्थान समाज में उत्यन्त महत्वपूर्ण है. निराला जी के साहित्य में भी नारी जाति का समस्त गौरव उजागर है, समस्त
समस्याएँ मुखर हैं. उस समय नारी उत्थान की एक चेतना फैली थी. ब्रह्म समाज, आर्य समाज आदि संस्थाओं एवं विवेकानंद, परमहंस ,गाँधी, रवींद्र आदि चिन्तकों एवं
विचारकों ने स्त्री संबंधी समस्त रुढ़ियों एवं अंधविश्वासों को तोड़ने का महत्कार्य किया था. निराला पर इन सबका गहरा प्रभाव था. साथ ही साथ उनकी चेतना भी इसके लिए जागरुक थी. उन्होंने नारी की स्वाधीनता को लक्ष्य बनाया. पुरुष के सहारे के बिना भी वह रह सकती है. उन्होंने लिखा है – “हमारे देश की लड़कियों पर बडे-बडे उत्तरदायित्व आ पड़े है. उनके वायु की तरह मुक्त रहने में ही हमारा कल्याण है.
तभी वे जाति, धर्म तथा समाज के लिए कुछ कर सकेंगी. उन्होंने दबाव में रख इस देश के लोग अपने जिस कल्याण की चिन्तन में पड़े हैं वह कल्याण कदापि नहीं, प्रत्युत
निरी मूर्खता है.” विधवा विवाह को आवश्यक बताकर निराला ने उसकी भी
आवश्यकता स्थापित की है.
निराला प्रारंभ से ही व्यक्ति पूजा के विरोधी रहे. निराला तो पंडित जवाहर लाल जैसे लोकप्रिय जन नेता पर भी व्यंग्य की मीठी महीन मार करने से नहीं चूके हैं. उन्होंने ‘बेला’ में एक गज़ल में लिखा है –
काले काले बादल छाये न आये वीर जवाहर लाल
कैसे कैसे नाग मंडराये न आये जवाहरलाल
मँहगाई की बाढ़ बढ़ आई गाँव की छुटी गाढ़ी कमाई
भूखे नंगे खड़े शरमाये न आये वीर जवाहर लाल.
निराला राजनीतिक नेताओं का, उनके छल- छद्म का, उनके अनावश्यक
दम्भ और महत्व का विरोध किया जाना आवश्यक समझते थे. उनमें शुरु से ही
जनतांत्रिक भावना थी और नेताओं में जो आभिजात्य का मोह होता है उसके वे प्रबल
विरोधी थे. उनका सह दृष्टिकोण उनके साहित्य में स्पष्टतः व्यक्त हुआ है. निराला
बराबर जनसामान्य की सुविधा, सुरक्षा और सम्मान के लिए चिंतित रहे. उन्होंने
मनुष्य को उसकी विपन्न्ता में भी सबल और महान चित्रित किया. नये पत्ते, की कई
कविताओं में तथाकथित बड़े लोगों पर व्यंग्य, कटाक्ष और कटूक्तियाँ हैं. जैसे नेता का एक चित्र इस प्रकार है-
आजकल पंडितजी देश में विराजते हैं
माताजी को स्वीट्जरलैण्ड के अस्पताल
तपेदिक के इलाज के लिए छोड़ा है,
बडे भारी नेता हैं
कुइरीपुर में व्याख्यान देने को
आये हैं मोटर पर
लंदन के ग्रेजुएट
एम.ए. और बैरिस्टर
बडे बाप के बेटे.
‘सरोज स्मृति’ वैसे तो एक शोक गीत है लेकिन इस में सामाजिक जीवन के यथार्थ चित्र भी अंकित हैं. कान्य कुब्जों के रीति रिवाज, विवाह संबंधी लेन-देन, विवाह की प्रणाली, विद्रोही व्यक्ति के प्रति उनका रवैया आदि बातें इस कविता से प्रत्यक्ष हैं. इस प्रकार यह कविता कवि के संघर्षपूर्ण जीवन का सच्चा इतिहास ही नहीं, सामाजिक दशाओं को प्रतिबिम्बित करने वाला साफ आईना भी है. राम की शक्ति पूजा, को आधुनिक संदर्भ के अनुरुप लिखा गया है. राम जैसे चरित्रों को आज भी सफलता आसानी से नहीं मिलती . उन्हें अत्यन्त कठिन परीक्षाओं से गुजरना पडता है, निराशा, मायूसी और पस्ती के अनेक अवसर आते हैं. यदि व्यक्तित्व नहीं टूटा, और संकल्प
विच्छिन्न नहीं हुए, तभी सफलता की संभावना रहती है. पूँजीवादी समाज व्यवस्था में यही तो होता है कि जो शोषक हैं शक्ति और साधन उन्हीं के अधीन हैं. शक्ति जब
विषम रावणीय व्यवस्था के हाथों पड़कर उन्हीं की सहायता करने को विवश हो जाती है तो राम सा वीर और धैर्यवान पुरुष भी कातर हो उठता है-
कुछ क्षण तक रहकर मौन सहज निज कोमल स्वर
बोले रघुमणि-मित्रवर विजय होगी न समर
यह नहीं रहा नर-वानर का रावण से रण
उतरीं पा महाशक्ति रावण से आमंत्रण
अन्याय जिधर है उधर शक्ति, कहते छल छल
हो गये नयन कुछ बूँद पुनः ढलके दृग-जल.
निराला का विविधता पूर्ण लेखन प्रमुख रुप से समाजवादी अवधारणाओं की ओर उन्मुख इस कारण से भी हुआ कि उन्होंने बंगाल तथा गढ़ाकोला के अपने ग्रामीण जीवन में गरीबी, शोषण, उत्पीडन एवं ब्रिटिश शासन की क्रूरताओं का नग्न नृत्य देखा था. वह राष्ट्रवादी थे. पराधीनता की बेडियाँ तोड़ना चाहते थे, जमींदार तालुके दार,
साहूकार, मिल मालिक अपनी शक्ति एवं धन बल का प्रयोग कर उत्पीड़न के स्रोत बन गए थे, उस पर व्यंग्य करते हुए निराला लिखते हैं-
जमींदार की बनी
महाजन धनी हुए हैं
जग के मूर्त पिशाच
घूर्तगण गुनी हुए हैं.
इसी प्रकार समाज के विभिन्न अंगों पर जब उनकी दृष्टि पड़ती है तो खुलकर पूँजीवाद को कोसते हैं. चक्की में स्वयं आटा पीसकर खानेवाला निराला वास्तविकता को निकट से देखकर लिखता है जिसकी बदौलत आज पूँजीपति गुलाब का फूल बना
बैठा है, वह वर्ग भूखा और नंगा है, इस धनी वर्ग ने उसका रक्त चूसा है. कुकुरमुत्ता
नामक कविता में स्पष्ट शब्दों में इस धनी वर्ग को कोसते हुए निराला लिखते हैं-
अबे, सुन बे, गुलाब
भूल मत पाई जो खुशबू
रंगोआब,
खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट
डाल पर इतरा रहा है कैपीटलीस्ट
रोज डाला गया है तुझमें पानी
तू हरामी खानदानी.
जब रास्ते पर चलते हैं तो आँखें खोल कर चलते हैं और उन निस्पृह प्राणियों पर
निगाह जाती है जो बृहत्तर समाज के अंग हैं. भरी दोपहरी, बिना छाया के एक स्त्री
पत्थर तोड़ती दिखती है. दिल दहल जाता है, उसकी दयनीयता पर विह्वल निराला का स्वर फूट पड़ता है. वह दरबारी या सामंती कवि न होकर धरती के ऊपर जन्मे
दुर्भाग्यपूर्ण प्राणियों को देखकर सहृदयता से लिखते हैं-
“वह तोडती पत्थर.
देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर.”
लड़के जमीन पर बैठे कुछ पढ़ रहे हैं और गा रहे हैं. पढ़ने के लिए भवन नहीं, बैठने को स्थान नहीं, बिछाने को साज सज्जा नहीं ‘यह है भारतीय समाज’ दुखी होकर कवि कहता है-“जल्द-जल्द पैर बढ़ाओ, आओ आओ,
आज अमीरों की हवेली
किसानों की होगी पाठशाला
धोबी, पासी, चमार, तेली
खोलेंगे, अँधेरे का ताला
एक पाठ पढेंगे, टाट बिछाओ.
यह क्रांति की भावना, यह भावी संदेश, और यह समाज की उत्पीड़ित
दशा का अवलोकन सोते, जागते, चलते-फिरते, समाज की वितृष्णा पर पैनी निगाह रखता हुआ जिसका हृदय दरिद्रता देखकर उद्वेलित हो उठता था उसी निराला ने तो लिखा –
वह आता
दो टूक कलेजे के करता
पछताता पथ पर आता
पेट पीठ दोनों मिलकर हैं एक
चल रहा लकुटिया टेक
मुट्ठी भर दाने को, भूख मिटाने को
मुँह फटी, पुरानी झोली का फैलाता
दो टूक कलेजे के करता,
पछताता पथ पर आता.
कितनी हृद्य विदारक स्थिति हैं. वेदना और दुख निराला के यथार्थवाद का
महत्वपूर्ण आयाम है. निराला के गद्य और पद्य व्यंग्य, इसी सड़ी गली एवं संकुचित
राजनीति की खासी खबर लेते हैं. इस प्रकार हम कह सकते हैं कि निराला जी के धर्म
समाज, साहित्य एवं राजनीति विषयक विचारों को यों तो अलग अलग रखकर नहीं
देखा जा सकता. वे सभी विचार एक दूसरे के साथ मिले हुए एवं एक ही व्यापक
भावभूमि पर स्थित हैं. इन सभी माध्यमों द्वारा निराला ने सिर्फ मानव की भलई को
ही प्रस्तुत किया है. बुराइयाँ नष्ट करने के लिए उन्होंने सिर्फ उसका खण्डन ही नहीं
किया वरन् रचात्मक सुझाव भी प्रस्तुत किए. वे एक अत्यन्त जागरुक, चिंतक, समाज सुधारक एवं मनीषी साहित्यकार थे. निरालाजी ओजस्वी तेजोमय जागरुक
साहित्यकार थे. निराला की विचारधारा मूलतः क्रांतिकारी है. साहित्यिक, राजनीतिक, सामाजिक तथा धार्मिक क्षेत्रों में इनके विचार एक नवीन उन्मेष, नई उत्तेजना लेकर
आते हैं. किसी भी स्थान पर इनके विचारों को देखकर इनकी क्रांतिकारिता का परिचय प्राप्त किया जा सकता है. समाज की जर्जर व्यवस्थाओं, राजनीतिक गुटबंदियों,
धार्मिक रुढ़ियों पर इन्होंने कड़े प्रहार किए हैं. इनकी विचार धारा आधुनिक प्रवृत्तियों के अनुकूल है. वे मानव जीवन को स्वस्थ एवं सुंदर देखना चाहते थे. एक आदर्शवादी
स्वप्न दृष्टा की तरह वे कामना करते हैं कि-
दूर हो अभिमान संशय,
वर्ण-आश्रम-गत महाभय,
जाति-जीवन हो निरामय,
वह सदाशयता प्रखर हो.
पूर्ण मानवता की स्थापना में जहाँ उनकी वाणी धुंआधार गरजती बरसती है,
वहीं प्रार्थना भी करती है, मंगल गीत भी गाती है, मंगल कामना भी करती है
मानव मानव से नहीं भिन्न,
निश्चय, हो श्वेत कृष्ण अथवा
वह नहीं क्लिन्न
भेदकर पर
निकलता कमल जो मानवता का
वह निष्कलंक
हो कोई सर.”