साहित्य सुमन
साहित्य सुमन
प्रो.एस.वी.एस.एस. नारायण राजू
स्वतंत्र वार्ता, हैदराबाद,
16 मई 2004
हैदराबाद की धरती साहित्य
की दृष्टि से बहुत उपजाऊ है। यहाँ अनेक भाषा-भाषी नए पुराने
साहित्यकार निवास करते हैं, आते रहते हैं और भारतीय साहित्य की अभिवृद्धि में अपना योगदान करते
रहते हैं। यह धरती साहित्यिक संस्थाओं की दृष्टि से भी बहुत संभावनाशील है। यहाँ
हिंदी सहित कई भाषाओं का प्रचार-प्रसार और साहित्य सृजन तथा आयोजन करनेवाली अनेक संस्थायें विद्यमान हैं। ऐसी ही एक संस्था है साहित्य सुमन, जिसकी संयोजिका
वरिष्ठ हिंदी कवयित्री डॉ.प्रतिभा गर्ग हैं। साहित्य के क्षेत्र में भी राजनीति की तरह अनेक दल
बंदियों के कारण देशभर में काफी दलदल है। अनेक दलपति अपने चेले चपाटों को
साथ लेकर दिन-रात दंगल में दंड
पेलते नजर आते हैं। सबके अपने-अपने झंड़े हैं अपनी-अपनी लंगोट। ऐसी स्थिति में पहलवानों के दाँव पेंच सरस्वती के लिए सिर धुनने का पूरा सामान प्रस्तुत करते हैं – “सिर धुनि लागि गिरा पछिताना।” ऐसे में जब कोई साहित्यकार निश्चल हृदय से दल-दल से निकलकर सर्व
समावेशी मंच का सृजन करता है तो निश्चय ही सरस्वती को राहत मिलती होगी। डॉ.प्रतिभा गर्ग ने ‘साहित्य सुमन’ संस्था के माध्यम से
ऐसी ही एक दल निरपेक्ष कोशिश चार वर्ष पूर्व आरंभ की थी। उसी कोशिश की साकार
परिणति के रुप में हमारे सामने है साहित्य सुमन
अंक -1।
144 पृष्ठों के इस
साहित्यिक संकलन में मुख्य रुप से कविताएँ प्रकाशित की गयी हैं जिनके बीच में
शोधपूर्ण आलेखों को सुरुचि पूर्वक संजोया गया है। इन आलेखों की शुरुआत डॉ.विद्यानिवास मिश्र की
‘साहित्य और संस्कृति’ पर टिप्णणी से होती
है। तत् पश्चात डॉ.राधेश्याम शुक्ल का
आलेख है ‘ग्लोबलाईजेशन और भारतीय संस्कृति”। डॉ. शुक्ल की इस स्थापना
से सहमत होना स्वाभाविक है कि ग्लोबलाईजेशन दुनिया को एक खुले अखाड़े में बदल देती
है। उनकी यह टिप्पणी गंभीर विमर्श का परिणाम है कि जो कमजोर होता है वह संरक्षण
वादी बनता है। आज अमेरिका और यूरोप के देश स्वयं संरक्षण वादी बन रहे हैं। वे
खुलेपन का अगुआ रहे हैं। लेकिन अब पीछे हट गये हैं। उनके किसान भारतीय या एशियाई
किसानों के आगे नहीं टिक पा रहे हैं। हमारे कृषि उत्पाद अच्छे और सस्ते हैं। ठीक
यही स्थिति विचारों और चिंतन के क्षेत्र में हो सकती है। उनकी आक्रामक संस्कृति
स्वयं संरक्षणात्मक हो जाएगी यदि हम अपने ज्ञान विचार, चिंतन व दर्शन को
पहचानें और दुनिया के आगे लाएं।
आलेखों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है डॉ.दिलीप सिंह का आलेख ‘हिंदी भाषा : विकास के आय़ाम’। अन्य आलेख हैं ‘दक्षिण भारत में राजभाषा का संदर्भ’ (गोवर्धन ठाकुर) ‘हिंदी को आंध्र की दिन’ (प्रो.टी.मोहन सिंह) ‘हिंदी काव्य सलिला’ (डॉ.प्रतिभा गर्ग) ‘हिंदी कहानी : एक परिचय’ (डॉ. पुष्पा बंसल), ‘समकालीन हिंदी उपन्यासों में राजनीतिक चेतना’ ( डॉ. एम.वेंकटेश्वर), ‘अभिनय तंत्र की दृष्टि से हिंदी नाटकों का विकास’ (डॉ. एस.वी.एस.एस. नारायण राजू) ‘हिंदी आलोचना’ (डॉ. किशोरी लाल व्यास), ‘निबंध और उसके सहचर’ (डॉ. ऋषभ देव शर्मा) ‘आधुनिक हिंदी साहित्य में नारी चेतना’ (श्रीमती कविता
वाचकनकी) ‘हिंदी साहित्य में मानव मूल्य’ (डॉ. गोपाल शर्मा), ‘कविता और हमारा समय’ (डॉ. गोपेश्वर सिंह), ‘हिंदी का दलित साहित्य’ (डॉ.वी. कृष्णा), ‘उत्तर आधुनिक सांस्कृतिक परिदृश्य और हिंदी कविता’ (डॉ. रविरंजन) ‘आधी सदी का समय और एक उदास शहर’ (डॉ. परमानंद श्री वास्तव)।
ये सभी आलेख अपने-अपने विषय के
विशेषज्ञों द्वारा लिखे गए हैं और शोध संदर्भ की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। हाँ, पृष्ठ सीमा के कारण
एक दो आलेख सर्वेक्षण की दृष्टि से अधूरे से प्रतीत होते हैं। जिसकी क्षतिपूर्ण
अंक-2 में की जा सकती है।
साहित्य सुमन -1 में विविध विधाओं की
कविताएँ सम्मिलित हैं। गीत विधा के अंतर्गत अटल बिहारी वाजपेयी, दुलिचंद राशि और
सुरेंद्र शिव नारायण पहरे तक 24 रचनाकार सम्मिलित हैं। ज्यादातर गीत पारंपरिकता लिए हुए हैं और कुछ में कहीं-कहीं लय भंग होती है।
कविताओं का दूसरा वर्ग गजलों
का है। डॉ.सी.नारायण रेड्डी और
बलवीर सिंह से लेकर अजित गुप्ता और भँवरलाल उपध्याय तथा नीलम कुमार विड़ला तक की 19 गजलें अपने आप में इस
संकलन को संग्रहणीय बनाने में समर्थ हैं। गजलों में कवियों का सामाजिक सरोकार अनेक
स्थानों पर उनकी सौंदर्य चेतना पर भारी पड़ता दिखाई देता है जो एक शुभ संकेत हैं।
हाँ, कुछ गजलें शिल्प की
दृष्टि से थोड़े और श्रम की मांग करती हैं।
कविताओं का अवलोकन करने से यह प्रतीत होता है कि हैदराबाद के ये
रचनाकार अपने समय के समाज और राजनीति के प्रति जागरुक हैं। अनेक कविताओं में
व्यंग्य का पैनापन भी आश्वस्त करता है कि हैदराबाद की कविता हिंदी की समकालीन
कविता की मुख्यधारा के साथ कदम से कदम मिला कर चलाने का प्रयास कर रही है।
इस दृष्टि से डॉ. गोपाल कृष्ण तनहा, विजय विशाल, डॉ. किशोरी लाल व्यास ‘नीलकंठ’, दुर्गा दत्त पांडेय, चंद्र मौलेश्वर
प्रसाद, डॉ. ऋषभ देव शर्मा, विनोदिनी गोयंका, डॉ. पुष्पा बंसल, अभिनव शुक्ल और डॉ. किशोर वासवानी की
कविताएँ उल्लेखनीय हैं।
तीन कविताओं का अलग से उल्लेख किया जा सकता है। एक तो आई.पी.एस. अधिकारी श्रीमति
तेजदीप कौर की अंग्रेजी कविता ‘ब्यूटिफूल मैडार्लिंग’ है जो केंसर से
लड़ती हुई बेटी के निमित्त लिखी हुई करुणामय कविता है।
दूसरी डॉ. श्याम भारद्वाज की ‘अरे असीम अनंत अचेतन’ जो अपनी दार्शनिकता
के कारण विशिष्ट है तथा तीसरी श्रीमती कविता वाचक्नवी द्वारा रचित ‘सरस्वती’ वंदना जिसे प्रथम
पृष्ठ पर प्रकाशित किया गया है तथा जो सांस्कृतिक चेतना से ओत-प्रोत है।
अंतर्मन में ज्ञान-कर्म के धवल पंख
उज्जवल आसन। श्रेष्ठ, शुभ, झंकृत वीणा के शुभ
तारों का अनुशासन। मधुर! स्वच्छ! दिव्या! अतिभव्या! वागर्थों से संपृक्ता! दुहें शब्द की काम धेनु से अर्थ, करें नित्योपासन। यदि, जैसा कि नया ज्ञानोदय
में प्रकाशित एक लेख में वरिष्ठ लेखक ज्ञान चतुर्वेदी ने लिखा था, आलोचक की दफा तीन सौ
दो लगानी ही हो तो यह कहा जा सकता है कि इस संग्रह में कहानी और नाटक नहीं है, लेकिन यह वैसा ही
होगा जैसा कि कोई कहे कि खीर की प्लेट में हलुआ तो है ही नहीं। कुल मिलाकर साहित्य
सुमन का यह प्रकाशन हैदराबाद की दल निरपेक्ष स्वस्थ रचनाधर्मिता का प्रतिनिधि
संकलन माना जा सकता है।