यथार्थपरक, अवसरानुकूल, उपयुक्त नाटकीय संवाद : आधे – अधूरे






यथार्थपरक, अवसरानुकूल, उपयुक्त नाटकीय संवाद : आधे – अधूरे

प्रो. एस.वी. एस. एस. नारायणराजू
स्रवंति, मार्च 2006

यथार्थवादी नाटक होने से स्वभावतः आधे- अधूरे नाटक के संवादों में भी यथार्थपरकता आत्यंतिक रुप में विद्यमान है । नाटक का प्रत्येक पात्र अपने समग्र परिवेश एवं परिवार की यथार्थ स्थिति को यथातथ्य रुप में प्रस्तुत करता है । सावित्री, महेंद्रनाथ जैसे मुख्य पात्र नहीं, किन्नी जैसी गौण पात्र के संवादों तक में पूर्ण यथार्थता के दर्शन होते हैं । महेंद्रनाथ के चरित्रगत यथार्थ के साथ ही सावित्री के यथार्थ रुप को भी प्रस्तुत कर देनेवाले कई संवादों की योजना की गयी है। इस प्रकार के और भी अनेक संवाद इस संदर्भ में उदाहरण किये जा सकते हैं । यथा

बडी लडकी :  तो तू सोचता है कि ममा जो कुछ भी करती है यहाँ......                 
लडका         :   मैं पूछता हूँ क्यों करती हैं ? किसके लिए करती हैं ?
बडी लडकी  :  मेरे लिए करती थीं.......।
लडका         : तू घर छोडकर चली गयी  
बडी लडकी  : किन्नी के लिए करती हैं ।
लडका         : वह दिन--दीन पहले से बदतमीज होती जा रही है    
बडी लडकी  :  डैडी के लिए करती है ।
लडका         : उनकी हालत देखकर रहम नहीं आता ?
बडी लडकी    : और सबसे ज्यादा तेरे लिए करती हैं ।
 लडका         :  और मैं ही शायद इस घर में सबसे ज्यादा नाकारा हूँ । पर क्यों हूँ?”(1)          
नाटककार ने कई स्थलों पर विभित्र पात्रों की चारित्रिक विशेषताओं तथा युगीन सामाजिक विडंबनाओं का चित्रण करने यथार्थपरक संवादों का उपयोग किया है ।

         पात्रानुकूल संवादों की योजना के द्वारा अपने आधे-अधूरेनाटक में यथार्थ के धरातल पर विवध पात्रों की प्रतिष्टा करने तथा समयानुकूल एवं संदर्भोचित संवादों की सृष्टि द्वारा समकालीन स्थितियों की समग्र व्याख्या करने में नाटककार मोहन राकेश को आशातीत सफलता मिली है । नाटकीय पात्रों के संवाद समयानुकूल और प्रसंगानुकूल होने चाहिए । जिन संवादों में यह गुण नहीं होता वे श्रेष्ट संवाद नहीं कहे जा सकते । किसी भी पात्र के कथोपकथन में प्रसंग अथवा अवसर के अनुकूल कथन यदि नहीं कहा जाता अथवा प्रसंग से इधर वार्तालाप चलता है तो वह अपनी प्रभविष्णुता खोने के साथ ही नाटक को भी असफलता की और अग्रसर करने की प्रमुख भूमिका निभाता है । आधे-अधूरे के संवादों में यह गुण भी मिलता है और घटनाओं की कमी के कारण नाटककार को इसमें और भी सहूलियत मिली है । कित्री की विद्रोहधर्मिता ने सावित्री और उसके मध्य जो तनाव की स्थिति पैदा कर दी है । इस प्रसंग को निम्नलिखित संवाद पूर्णतः उजागर करने में कितना सहायक हुआ है ।  

स्त्री                   : नहीं छोडेगी ? बडा जोश चढने लगा है तुझे ?
छोटी लडकी      : हाँ, चढने लग है जब-जब कोई बात कहता है मुझसे, यहाँ किसी को   फुरसत ही नहीं होती चलकर उससे पूछने की ।
बडी लडकी       :  उन्हें सांस तो लेने दो । वे अभी घर में दाखिल भी नहीं हुई कि तू ने ।
छोटी लडकी      :  तुम मत बात करो । मिट्टी के लौंदे की तरह हिलो ही नहीं यहाँ सह्य  जब मैंने ।”(2)

       इस प्रकार के प्रसंगानुकूल संवादों की नाटक में कमी नहीं है । सिंघानिया के आगमन से पूर्व और पश्चात का सावित्री एवं अशोक का संवाद, जगमोहन और सावित्री, बिन्नी-सावित्री और महेंद्रनाथ तथा सावित्री-जुनेजा के संवाद इस दृष्टि से उल्लेख हैं ।

      आधे-अधूरेनाटक के संवादों की विशेषता उनकी उपयुक्तता भी है । कथानक और पात्रों में संबद्घ संवादों की योजना करके नाटककार ने इस नाटक को यथार्थ वादी धरातल पर आधुनिक जन-जीवन की विशेषताओं से जोडने में सफलता पायी है । उपयुक्त, स्वाभाविक एवं संबद्ध कथोपकथनों के कारण यह नाटक अत्यंत जीवंत बन पडा है । उपयुक्तता से यह तात्पर्य है कि नाटक में जो संवाद प्रयुक्त हों वे, घटना, अवसर, वातावरण एवं चरित्रों उदघाटित करने में सर्वथा सक्षम हों । इस सक्षमता के कारण ही संवादों में जीवंतता का समाहार संभव होगा । यदि यह सामर्थ्य संवादों में नहीं है तो न केवल उसकी अभिनेयता में बाधा पडेगी वरन् संपूर्ण कथानक ही अस्वाभाविक प्रतीत होगा । जहाँ तक आलोच्य नाटक के संवादों का प्रश्न है, यह उपयुक्तता उनमें अत्यंत प्रखरता के साथ विद्यमान है । अशोक द्वारा सिंघानिया का अपमान करने से सावित्री वितृष्ण हो उठती है और अशोक को प्रताडित करती है, तब अशोक जो उत्तर देता है वह न केवल परिवार के  तनाव को उजागर करता है वरन् घटना, अवसर एवं वार्तालाप के भी उपयुक्त है । उदाहरण यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है.......
स्त्री        :  मुझे तेरी ये हरकतें बिल्कुल पसंद ही नहीं हैं । सुन रहा है तू? सुन रहा है या नहीं ?
लडका     :  सुन रहा हूँ ।   
स्त्री           :  सुन रहा है तो कुछ कहना नहीं है तुझे ? नहीं कहना है ।
लडका      :  क्या कह सकता हूँ ?
स्त्री            : मत कह, नहीं कह सकता है तो । पर मैं मिन्नत खुशामद से लोगों को घर पर   बुलाउ और तू आने पर उनका मजाक उडाये, उनके कार्टून बनाये ऐसी
                       चीजें अब मुझे बिल्कुल बरदाश्त नहीं है । सुन लिया ।  बिल्कुल
                       बरदाश्त नहीं हैं ।
लडका   :  नहीं बरदाश्त है, तो बुलाती क्यों हो ऐसे लोगों को घर पर कि जिनके
                      आने से ?
स्त्री         :  हाँ, हाँ, बता क्या होता है जिनके आने से ?
लडका    :  रहने दो । मैं इसीलिए चला जाना चाहता था पहले ही ।
स्त्री          :  तू बात पूरी कर अपनी ।
लडका     :  जिनके आने से हम जितने छोटे हैं. उस से और छोटे हो जाते हैं अपनी
                      नजर में”(3)

          सावित्री और अशोक के इस वार्तालाप के माध्यम से नाटककार ने एक ओर सावित्री की चारित्रिक दुर्बलताओं, अपने घर परिवार को चलाने की असह्य बोझ से शीघ्र मुक्त होने की उसकी कामना, बेटे अशोक को नौकरी दिलवाने में उसकी आसक्ति, अपनी माँ सावित्री व सिंघानिया के संबंधों के प्रति अशोक की गहरी वितृष्ण और इन सब से बढकर इस परिवार की आर्थिक दुर्दशा इत्यादि का समग्र चित्र खींचने का प्रयत्न किया है । इस प्रकार वातावरण आदि का एक साथ निर्वाह करने नाटककार ने प्रभावपूर्ण ढंग से उपयुक्त संवादों की योजना की है ।

         संबद्धता भी आधे-अधूरे नाटक की संवाद-योजना की विशेषता है । पात्रों के संवाद स्वतंत्र न होकर कथानक और पात्रों से संबद्ध होने चाहिए । नाटक में चूंकि कथानक को केवल संवादों के माध्यम से ही गति मिल पाती है इसलिए समस्त नाटकीय संवादों का परस्पर संबद्ध होना कथानक के संप्रेषण में आवश्यक ही नहीं नाटक की महानता में भी एक मील का पत्थर है । आधे-अधूरेके संवादों में यह गुण भी सर्वत्र उपलब्ध होता है । मोहन राकेश ने पात्रों के संवादों का प्रयोग कथा गति के अनुकूल एवं पात्रों के चरित्रों से सर्वथा संपृक्त ही किया है । ये संवाद एक दूसरे से इस प्रकार अनुस्यूत हैं उन्हें अलग अभिधा देना समीचीन न होगा । प्रायः सभी संवाद कथा को परस्पर जोडने में सफल रहे हैं । जुनेजा एवं बिन्नी के इस संवाद में कथानक के पूर्वापर संबंध का पूर्ण परिज्ञान हो जाता है......
पुरुष चार    : बस-स्टाप पर खडा था । मैंने पूछा तो बोला कि आप ही के यहाँ जा रहा हूँ    डैडी का हालचाल पता करने । कहने लगा, आप भी चलिए, बाद में साथ    ही आ जाएँगे । पर मैंने सोचा कि एक बार जब इतनी दूर आ ही गया हूँ । 
तो सावित्री से मिलकर ही जाऊँ । फिर उसे भी जिस हाल में छोड आया हूँ                     उसकी वजह से.....।
बडी लडकी  :  किसकी बात कर रहे हैं .. डैडी  की?
पुरुष चार      :  हाँ, महेंद्रनाथ की ही । एक तो सारी रात सोया नहीं वह दूसरे...
बडी लडकी  : तबीयत ठीक नहीं उनकी ?
पुरुष चार      :  तबीयत भी ठीक नहीं और वैसे भी....मैं तो समझता हूँ । महेंद्रनाथ खुद  जिम्मेदार है अपनी यह हालत करने के लिए ।
बडी लडकी  : उस प्रकरण से बचना चाहती चाय बनाऊँ आपके लिए?
पुरुष चार    : चाय का सामान देखकर किसके लिए बनाए बैठी भी इतनी चाय ?  पी नहीं   लगता किसी ने ?
बडी लडकी  : (असमंजस में) यह मैंने बनाई भी क्योंकि सोच रही भी कि......
पुरुष चार      :  जैसे बात को समझकर वे लोग जल्दी चले गए होंगे ।... सावित्री को    पता  था न, मैं आनेवाला हूँ ?
बडी लडकी  : (अहिस्ता से) पता था ।”(4)

           इस नाटक की संवाद-योजना में जो सुसंबद्धता दिखायी पडती है इसके कारण से विभित्र पात्रों की क्रिया-प्रतिक्रियाओं का तथा विभित्र घटनाओं की श्रृंखलाबद्धता का आभास अनायास ही होने लगता है । स्वाभाविकता भी आधे-अधूरे नाटक की संवाद-योजना की एक और विशेषता है । स्वाभाविकता से यह आशय है कि पात्रों द्वारा कहे गये संवाद सहज स्वाभाविक प्रतीत हों । दर्शकों अथवा पाठकों के उन में कृत्रिमता का एहसास कहीं पर न हो । यदि संवाद कृत्रिम होंगे तो दर्शक उन से शीघ्र ही ऊब उठेगा और प्रकारान्तर से नाटक की सफलता संदिग्ध हो जायेगी । आधे-अधूरेके संवादों में यह गुण प्रभूत मात्रा में उपलब्ध होता है । सावित्री, महेंद्रनाथ, अशोक अथवा अन्य किसी भी पात्र के संवादों में कहीं पर भी अस्वाभाविकता दृष्टिगोचर नहीं होती । स्त्री और अशोक के इस संवाद को उदाहरणार्थ रखा जा सकता है...
स्त्री                 : तो फिर ?
लडका            : तो फिर क्या ?
स्त्री                 : तो फिर क्या मरजी है तेरी ?
लडका            : किस चीज को लेकर ?
स्त्री                  : अपने-आपको ।
लडका            : मुझे क्या हुआ है?
स्त्री                  : जिंदगी में तुझे भी कुछ करना-धरना है या बाप ही की तरह.....?
लडका            : फिर तीखा पडकर हर बात में कामखाह उनका जिक्र क्यों बीच में लाती हो?
स्त्री                  : पढाई थी, तो तूने पूरी नहीं की । एयर-फोर्स में नौकरी दिलवाई थी । तो वहाँ   से छः हफ्ते बाद छोडकर चला आया । अब मैं नए सिरे से कोशिश करना  चाहती हूँ तो.....
लडका            : पर क्यों करना चाहती हो ? मैंने कहा है तुम से कोशिश करने के लिए?”(5)

          ये संवाद उस परिवार के सदस्यों की संबंधहीनता व उनके व्यक्तित्व की खण्डित चेतना को यथार्थ के धरातल पर अभिव्यक्ति देने में अवश्य सहायक प्रतीत होते हैं । इस के अलावा इस नाटक के संवाद नाटकीयता से भरे पूरे हैं । नाटक के कथानक में संवादों के द्वारा ही नाटकीयता का आना संभव हो पाता है किंतु स्वगत कथन इस नाटकीयता में बाधक बन जाते है । इसीलिए नाट्य शास्त्रियों ने स्वगत कथनों को नाटक में एक दोष माना है और उन्हें नाटक में स्वगत कथनों का प्रयोग चला आ रहा है । मोहन राकेश के नाटकों में भी स्वगत कथन प्रयुक्त हुए किंतु इन स्वगत कथनों में गहरी नाटकीयता है । आधे-अधूरेमें सावित्री की अस्त-व्यस्तता के मध्य कहे गये स्वगत-कथन उसके मानसिक उहापोह अनिर्णय के दौर से गुजरने के क्षण को बडे कलात्मक और नाटकीय ढंग से व्यक्त करते हैं । सावित्री के गहन अन्तर्द्वन्द्व का पूर्ण परिचय देने में यह स्वगत कथन कितने सहायक हुए हैं । यह निम्नलिखित संवाद में प्रत्यक्ष अनुभव किया जा सकता है......
स्त्री                  : कब तक और ?
                        गले की माला को उँगली में लपेटते
                        हुए झटके लगने से माला टूट जाती है ।
                        परेशान होकर वह माला को उतार देती
                        है और जाकर कबर्ड से दूसरी माला
                        निकाल लेती है ।
                        साल पर साल... इसका यह हो जाए,
                        उसका वह हो जाए ।
                        मालाओं का डब्बा रखकर कबर्ड को
                       बंद करना चाहती है, पर बीच की
                      चीजों के अव्यवस्थित हो जाने से
                       कबर्ड टीक से बंद नहीं होता । एक
                       दिन....दूसरा दिन....
                      नहीं ही बंद होता, तो उसे पूरा
                      खोलकर झटके से बंद करती है ।
                    --------------               ------------- 
                  चख्-चख्.... किट्-किट्.......चख्-चख्.....किट्-किट् । क्या सोचूँ ?
                  उसाँश के साथ कुछ मत सोचो ।”(6)

      स्वगत कथनों के माध्यम से नाटकीय कार्य व्यापारों का निर्वाह सफलतापूर्वक करने के कारण आधे-अधूरेनाटक मंचीय सफलता की दृष्टि से भी श्रेष्ट बन पडा है । इस प्रकार यथार्थपरक संवादों के माध्यम से इस नाटक के विवधि पात्रों की चारित्रिक विशेषताओं को उजागर करने तथा अवसरानुकूल एवं उपयुक्त संवादों की योजना द्वारा नाटकीय स्थितियों को आधुनिक जन-जीवन के अधिक निकट पहूँचाने के कारण मोहन राकेश की यह रचना अत्यंत लोक प्रिय हुई है ।   
संदर्भ :   
1.  मोहन राकेश आधे-अधूरे पृ.सं.55
2.  मोहन राकेश आधे-अधूरे पृ.सं.37
3.  मोहन राकेश आधे-अधूरे पृ.सं.52-53
4.  मोहन राकेश आधे-अधूरे पृ.सं.77-78
5.  मोहन राकेश आधे-अधूरे पृ.सं.42
6.  मोहन राकेश आधे-अधूरे पृ.सं.66-68

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