नई कविता एवं वचन कविता में बिंब विधान
नई कविता
एवं वचन कविता में बिंब विधान
प्रो. एस,वी.एस.एस.
नारायण राजू
सरस्वती,
तुलनात्मक साहित्य हिंदी और अन्य भाषाएँ, 2014
ISBN NO. 978-81-921270-1-9
बिंब का कोशार्थ यह है कि – प्रतिच्छाया, अलक, उपमेय आयना है. बिंब को अंग्रेजी में Image कहते हैं. प्रत्येक कवि
अपनी रचना में विभित्र शिल्पगत साधनों के सहोर अपनी भावनाओं तथा अनुभूतियों को अभिव्यक्क
करता है. उन्हें भाषा के प्रयोगों पर असमान अधिकार होता है. एक शिल्पी के समान काव्यकार
कई बिंव के माध्यम से अपनी भावना को साकार बनाने की चेष्ठा करता है. इस तथ्य को नकारा
नहीं जा सकता कि कविता में बिंब का स्थान महत्वपूर्ण है और रहेगा. मिहाईल असियात्रिकोव
ने कला में बिंब के स्थान के बारे में चर्चा करते हुए इस प्रकार कहा है कि
“कला बिंब विधान को त्याग नहीं सकती क्योंकि बिंब विधान उसकी आत्मा भी है, उसका अन्तस्सार
है और उसका प्रधान चरित्रगुण.”
(1) आधुनिक कला संदर्भ में यह घोषणा महन्वपूर्ण है. बिंब के
महत्व का एक कारण यह भी है कि सभी कलाओं के सामान्य तत्व के रुप में बिंब का स्थान
है. बिंब एक दार्शनिक सत्य और मनोवैझानिक तथ्य है. एक संवेधनात्मक स्वर (Tone) का इसमें संयोग होने पर यह कलात्मक बिंब हो
जाता है. काव्य में यह कलात्मक बिंब शब्दों के माध्यम से रुपायित होता है. शब्द
अन्य कला माध्यमों की अपेक्षा अधिक सामाजिक होते हैं. इसलिए काव्य में बिंब विधान
का प्रतिदर्श (Patten) किसी निश्चित विचारधारा एवं जीवन-दृष्टि के आलोक में रुपायित होता है.
वैसे, बिंब विधान के अध्ययन में बिंब विधान के स्त्रोतों पर कम, बिंब की विशेषताओं
पर अधिक ध्यान देना समीचीन होगी. अरस्तु के कलादर्शन में कला की प्रकृति की
अनुकृति कहा गया है. किंतु यह अनुकृति वस्तुओं के बाह्य आभास के प्रति नहीं, वरन् उनकी आंतरिक सार्थकता की
होनी चाहिए. प्रकृति की सृजन-प्रक्रिया का अनुकरण और एक विशाल अर्थ में यह
प्रक्रिया कलात्मक बिंब विधान
के बिना संभव नहीं है.
आजकल कलाकृतियों के ऐसे अध्ययन पर ज़ोर दिया जा रहा है जिसमें कृति की विचार धारा
और विचार किया जाता हो. काँडवेल के अनुसार कला का जगत् “ सामजिक संवेग ” का जगत् है जो अनेकों के जीवन अनुभवों के फलस्वरुप उपलब्ध शब्दों और
बिंबों से बना हो.
नयी कविता की केंद्रीय भावना दुःख एवं
उदासीनता नहीं, एक तरह की अनुभूतिगत निर्वैक्किकता कही जा सकती है जिसका एक गुण यह
है कि भाव को बिंब रुप
में प्रत्यक्षीकृत करने के साथ-साथ, उसकी पर्तें का सुंदर विश्लेषण भी उसको मिलता
है. जैसे, अझेय की इस कविता में –
वहाँ
एक चट्टान है
सागर उमड़कर उससे टकराता है
पछाड़ खाता है
लौट जाता है
फिर नया ज्वार भरता है
सागर फिर जाता है
न कहीं अन्त है
न कोई समाधान है
न जीत है न हार है
केवल परस्परता के तनावों का
एक अविराम व्यापार है
और इस में
हमें एक भव्य का बोध है
एक तृप्ति है, अहं की तृष्टि,
विस्तार है
विराट् सौंदर्य की पहचान है.
और यहाँ
यह तुम हो
यह मेरी वासना है
आवेग निर्वेतिरेक
निरन्तराल......
खोज का एक अन्तहीन संग्राम :
यही क्या प्यार है? (2)
वैसे
यह इतना सुनियोजित नहीं लगता और कविता के अंत में जो विस्मयमय प्रश्र है उससे
प्रतीत होता है कि भाव का विश्लेषण होने पर भी कविता बौध्दिक नहीं है. अझेय के
बिंब विधान की यह विशेषता है कि उनके बिंबों में अधिकतर प्राकृतिक दृश्यों से
संबंधित हैं. उषा, सन्ध्या, पंछी, सागर, नदी और मछली जैसे सामान्य बिंब के माध्यम
से विशिष्ट अर्थ गहराई स्फुरित करने में अझेय सफल रहे हैं.
तेलुगु के पठ्भि को नगर का जीवन स्वानुभूत
है. संदर्भ बदला है. चंद्रमा के बदले होगा अब चाँदी के रुप की अधिक महत्व देने लगे
हैं. पूँजी के समाज में चाँदी के रुप को महत्व देना स्वाभाविक ही तो है. पर पठ्भि
के लिए यह स्वाभाविक नहीं जँचता, वे कहते हैं कि –
“मुखुर है हमारे कोनों में
दिलों
में भी, चाँदी का रुपया
हाय
चंद्रमा
खाये
रुपए का भी तुम से
भ्रम नहीं
होता क्या किसी को ?
सच है,
तुम्हारी
कर्त जरुरत नहीं देखो
हमारी
आंखें होती वियुग्ध बिजली
के
दीपों की धवलिया से बिजली
के
विज्ञापनों की रंगीन क्रांति
के
उन्माद
– नर्तन से”
तेलुगु
मुखरिंपुचुन्नादि
मा कर्णालतो
गुंडियलदुगूड वेंडिरुपायि
.....
..... ..... ..... ....
अय्यो जाबिल्ली
निन्नु पोगोदुकुन्न रुपपायलागनैना
भ्रमिंपरे एव्वरु निजंगा
नीवोरचोर बोत्तिगा अनवसरं सुमी
मा कुल्लु मरिसिपोवनु चलविदुकु
दिपाल यालधवल परमुनकु, पलविदुकु
अइवर्टाइजमेंटलो रंगु रंगुल
कांतिचेय उनमाद नग्न नर्तनम्मुनकु । ” …….(3)
बडे ललित बिबों के माद्याम
से रामदरशामिश्र गलियों में भटकती छाँह की नाना भंगिमाओं के वर्णन व्दारा नगर का
यह बिंब खीचते हैं.
एक चिडिया धूप की
उड रही है कंगरों से कंगूरों तक
छाँह गलियों मे भटकती है
फिसल जाती कहीं चिकनी भीत पर
तार में हैं उलज जाती कहीं
पड जाती
बसों के आगे भिखारिन-सी
पार करने में सडक
असहाय कह जाती
कभी आती रेल के पहले
पटरिलों सिर पटकती है
भीड़ में खोयी अकेली – सी
लहर-सी टूट जाती और जुड जाती .........(4)
उपमानों
का उपयोग न करके यथार्थ चित्रण को ही बिंबवत् बनाकर एक अन्य कविता में कवि नगर का
यह बिबं प्रस्तुत करते हैं –
फुटपथों पर टूट रही हैं रह
रहकर
खडी खाँसी की आवाजों
एक लावारिस लाश पडी है
जिसकी अगल बगल से
सफेद संस्कृति की धाराएँ बह
जाती हैं कतराकर
टेरेलिन पहने कुछ जवान बाबू
तोहफे बख्श रहे हैं
शरीफ माताएँ
मारकर आए हुए बच्चों की पीठ
ठोकती है
और अंग्रेजों में उन्हें
कुत्तों से प्यार सिखाती हैं
अंधेरी गली के एक टूटे मकान में
बैठी हुई एक गरीब विधवा
एक उदास लोकगीत गुनगुनाती हुई
बाट जोह रही है बेटे के लौटने
की
और उसकी छत पर
चुसी हुई हड्डी का एक टुकडा
लिए
चील आ बैठी है सामने के
बंगले से ............ (5)
भरत
भूषण अग्रवाल को महानगर साँपों से भरा हुआ दीखता है, उन्हें नाग यज्ञ करने किसी
जनमेजय की प्रतीक्षा है. पौराणिक बिंब का सकल प्रयोग इनकी इस कविता में मिलता
है.थथा-
इस महानगर में जहाँ भी जाता
हूँ
कुर्सी पर साँप को
कुण्डली मारे बैठा पाता हूँ
सडक पर जब मैं बेखबर चला रहा
होता हूँ
चुपके से बगल से
एक रंगीन साँप सरक जाता है
पार्कों की घासों पर
इन्हें लहराते देखता हूँ
दफतरों और रेस्ताओं में
इनको फुफकारें उठती हैं
क्या मेरी तरह
और सब भी
एक जनमेजय के इंतजार में
अटके हैं............ (6)
एक ही बिंब का यहाँ विस्तृत
रुप में प्रयोग किया गया है. राजकमल जौधरी को नगर के अंधेरे में एक बीभत्स नारी
बिंब का प्रत्यक्षीकरण होता है. थथा-
अचानक एक रात प्लेक-आऊट में
बेहोश इस नगर के अंधेरे में
मैंने उसे देख लिया शहीद-स्मारक के नीचे
रोते हुए वह नंगी भी और खून
से लथपथ भी और वह
कराहती हुई भागी जा रही थी
गलियों में मरगट में और
राजभवनों में पुकारती हुई
मेरा ही नाम बार बार
गिरती हुई ठोकरें खाती हुई हँस भी – खिलखिलाती हुई
मैंने उसे देखा उसके कटे हुए दोनो स्तनों को
जोडकर बनाया गया है
पृथ्वी का गोलाम्बर
और वह बुझे हुए
लैम्प-पोस्टों को जलाने की कोशिश में
लइ लुहान हो गयी है. .......
(7)
कविता
का क्षेत्र भावानुभूतियों का क्षेत्र होता है. कविता का अंतस्समन सौंदर्य भावना है
न कि विचारा नई कविता में यद्यपि विचारों को प्रधानता की बात उठायी जाती है और
भावुकता का विरोध इस कविता का चरित्र-गुण माना जाने लगा है, तथापि भावों का कलात्मक
बिंबों में भावनात्मक अंकन नई
कविता की विशेषताओं में से एक है. वास्तविकता यह है कि ये भाव नई कविता में
अपेक्षाकृत नकारात्मक है. बेबसी, उदासीनता इत्यादि भावों का चित्रण निश्र्चित रुप
से नया है और युग के संत्रास की अभिव्यकित हैं.
मन की उदासीनता का यह चित्र प्रकृति के
संदर्भ में मानवीय भावों का आरोप करके केदारनाथ सिंह प्रस्तुत करते हैं कि -
झरने लगे नीम के पत्ते
ब़ढ़ने लगी उदासी मन की.
उडने लगे बुझे खेतों से
झुर – झुर खेतों – सी रंगीनी
धूसर धूप हुई मन पर ज्यों
सुथियों की चादर अनवीनी
दिन के इस सुनसान पहर में रुकती गयी
प्रगति जीवन की.”……. (8)
विवश
स्थिति को सामाजिक संदर्भ में यह बिंब प्रस्तुत करता है सर्वेश्रर दयाल सक्सेना –
भूखी बिलली की तरह
अपनी गर्दन में संकरी हांडी फंसाकर
हाथ-पैर पटकाओ,
दीवारों से टकराओ
महज छठपटाते जाओ
शायद दया मिल जाय
दुनिया और पसंद करती है
मगर शेक चेलों को
अपनी हर मृत्यु को
हर भरी कयारियों में
भरी हुई तितलियों
पंख रंगकर छोड दो.
शायद संवेदन मिल जाय.”……….(9)
कहीं-कहीं उपेक्षा के
विरुध्द सार्थकता की आशा व्यक्त की गई है. जैसे धर्मवीर भरती की इस कविता में –
में रथ का टूटा पहिया हूँ
लेकिन मुझे फेंको मत
इतिहासों की सामूहिक गति
सहसा झूठी पड जाने पर
क्या जाने
सच्चाई टूटे हुए पहिए का
आश्रय ले............. (10)
तेलुगु में बैरागी ने इस प्रकर अभिव्यक्क
किया है कि-
नाक्कोंचं नम्मकमिव्वु
कोंडल पिंडु कोटृस्तानु
चितिकिन टमाटोलांटि
सूर्युणि
आरिन अप्पडंलांटि
चंदृण्णि
आकाशपु एंगिलि पल्लेंलोचि
नेटृस्तानु
मझे थोडा विश्वास दो
पहाडों को पीस दूँगा
फटे हुए टमाटर-सा सूरज को
सूखे पापड-सा चाँद को
आकाश की झूठी थाली में से
निकाल दूँगा.
अपनी भय विह्रल मनःस्थिति को
शेषेंद्र शर्मा इस प्रकार व्यक्त करते हैं कि-
कौन आने देंगे, इस रात को
रात के पदचाप सुनते ही
बस
दिन बैठ जाता है
शाम का खून पी
अदृहास करते आकाश की जिह्रा
में
भयानक दुष्टा पंक्तियों
सित शोणित नक्षत्र
कितना घना अंधकार
यह है एक दुस्वप्न – नोड़
विहूवल मनःशकलों में जनित
कुटिलाकृतियों का नर्तन ऊसा
तेलुगु
एवरु रानिस्तरु ई रात्रिनी
रात्रि अडुगुल चण्णुडु
विनिपिस्ते
चालु
गुंडे गुबगुब लाडुतंदि
सायंत्रपु रक्तम त्रागि
विकटाटृहासं चेसे आकाशपु
नोटिलो
भकर दुटा पंतुलु
सितशोणित नक्षत्रालु
एंतटि गाढ तपस्सु
इति ओक पीड़कलल गूड
विह्रल मनः रक्तालतो पुटृन
कुटिलाकृतुल तांडविंचे
वीडु........... (11)
समसामयिक
समाज की संश्लिष्ट गति का भावात्मक प्रकृति बिंबों में चित्रण करते हुए रामदर्श
मिश्र कहते हैं कि-
दौडता सांस हाँफता दिन
एक नीली झील पर आ रुक गया है.
भागते-से रास्ते, ज्यों साँप
तल पर शान्त उतराए हुए हैं
बिछुडते पिटते हुए चेहरे
सतह पर फूल ज्यों छाए हुए हैं.
टूटकर उडता हुआ आकाश
ठहरा-सा समूचा झुक गया है.”……………..(12)
रुमानी
संस्कार से युक्त कुछ बिंब इस संदर्भ में द्रष्टव्य है. धर्मवीर भारती का एक
कलात्मक बिंब इस प्रकार है-
ये शरद के चाँद से उजले धले से पाँव, मेरी गोद में.
ये लहर पर नाचते ताजे कमल की
छाँव मेरी गोद में.
दो बडे मासूम बादल, देवताओं
लगाते दांव मेरी गोद में........... (13)
इसके
ठीक विपरीत अज्ञेय का प्रयोगवादी नये सौंदर्य बोध को व्यक्क करता एक श्रव्य बिंब
है-
सबेरे – सबेरे
नहीं आती बुलबुल
न श्यामा सुरीली
न फुटकी न दँहग
सुनाती हैं बोली
नहीं फूल सुँधनी
पेतना-सहेली
लगाती है फेरे.
जैसे ही जाग
कहीं पर अभागा
अडाता है कागा
काँय! काँय. ............... (14)
नारायणबाबू
चंद्रमा के लिए यह ताजा बिंब प्रस्तुत करते हैं कि
अमलिन शीशे का दुकडा
चंद्ररेख.
समाज वक्रता
तेलुगु
मासिपोनि गाजु मुक्का
नेल वंक
सघं वंका .................. (15)
चाँदनी के लिए एक अत्यंत नवीन सह संवेदनात्मक बिंब है नारायण बाबु का
झनझन
छल्लों की ध्वनि है चाँदनी
तेलुगु
घल्लु घल्लु
मदेल ध्वनि वेन्नल............ (16)
चाँद के लिए एक अन्य बिंब
समाधि में
मृत शिथु-सा
जलधांतर शशि
तेलुगु
समाधि लो
मृत शिशुवुलला
जलधांतर शशि..........(17)
तेलुगु
की वचन कविता में तिलक का नव-रुमानी सौंदर्य बोध द्रष्टव्य है. बडी सुकुमार भाव के
साथ, विकसित सौंदर्य बोध के कवि हैं तिलका. इनके कुछ सह संवेदनात्मक बिंबों में इनका
प्राकृतिक सौंदर्य बोध व्यक्त हुआ. प्रातः काल को लेकर एक सह संवेदनात्मक सौंदर्य
बिंब है –
देशभक्त और धर्मपुरुष
लाडली लडकियाँ, कुंकुमवतियाँ
प्यारे लडके, विवाहिताएँ
साथ नाचते कोकिल कंठसे
गयी शुभ अभिनव प्रभात
रेखा धवलिया माँ हो तुम
तेलुगु
देश भक्तुलु, धर्मपुरुषुलु
चिट्टी तल्लुलु सीमंतिनुलु
मुद्दुबालुरु मुतैदुवुलु
कूडियाडचु कोकिल गानमुल
पाडिन शुभाभिनव प्रभात
गीता धवलिमवा ............. (18)
कविता के बारे में तिलक के ये बिंब
हैं-
शीशे की लहरों को चाँदनी के
समुंदर
जुही के फूलों के इंद्र-दीप
और मंत्रलोक के मणिस्तंभ
ये है मेरी कविता की चंदन
शाला के सुंदर चित्र विचित्र.”
तेलुगु
गाजु केरटाल वेन्नेल समुद्रालु
जाजि पुव्वुल अत्तरु दीपालू
मंत्रलोकपु मणिस्तंभालू
ना कविता चंदन शाल सुंदर चित्र
विचित्रालु................ (19)
इस अध्ययन से यह विदित होता है कि विभिन्नता
में एकता ही भारतीय साहीत्य की विशेषता है.
संदर्भ
:
1.“Art
is incapable of renouncing imagery because imagery is its very soul, its
essence and its main characteristic”
“Problems of modern Aesthetics”…. Artistic
image MIKHALL OVSYANNIKOV (P.215)
2. सागर.........मुद्रा......अज्ञेय
पृ. 65-76
3.फिडेलु
रागालुडजन – जाबिल्ली
– पठाभि पृ.स.8
4.पकगयी
हैं धूप :
रामदरश मिश्र पृ.सं. 51
5. पकगयी
हैं धूप : रामदरश
मिश्र पृ.स. 85,86
6. एक
उठा हुआ हाथ – भरतभूषण अग्रवाल पृ.सं. 42,43
7. मुक्तिप्रसंग – राजकमल चौधरी पृ.सं.
26,27
8. वाग्देवी
– झरने लगे नीम के पत्ते – केदारनाथ सिंह पृ.सं. 294
9. आयाम
– सौंदर्यबोध – सर्वेश्रर दयाल सकसेना पृ.सं. 144-145
10. अंधायुग
– धर्मवीर भारती पृ.सं. 105
11. शेमज्योत्स्ना
– गुंटूरु शेषेंद्र शर्मा पृ.सं. 18
12. पकगयी
है धूप – रामदरश मिश्र पृ.सं.70
13.तारसप्तक
– धर्मवीरभारती पृ.सं. 176
14. पूर्वा
– अज्ञेय पृ.सं. 225
15.रुधिरज्योति
– श्रीरंगं नारायण बाबू
पृ.सं. 101
16.रुधिरज्योति
– श्रीरंगं नारायण बाबू
पृ.सं. 131
17. रुधिरज्योति
– श्रीरंगं नारायण बाबू
पृ.सं. 18
18.अमृतं
कुरिसिन रात्रि – तिलक पृ.सं. 133
19.
अमृतं कुरिसिन
रात्रि – तिलक पृ.सं. 5