डॉ. रामविलास शर्मा का बहुआयामी व्यक्तित्व




डॉ. रामविलास शर्मा का बहुआयामी व्यक्तित्व 

प्रो. एस.वी.एस.एस. नारायण राजू 

पूर्णकुंभ

जुलाई - 2000



हिन्दी आलोचना क्षेत्र को एक नई दिशा देकर, उसे नई रुपरेखा प्रदान करके हिन्दी साहित्य जगत को पूर्ण रुपेण समृद्ध किया है डॉ. रामविलास शर्मा ने। डॉ.रामविलास शर्मा जी का जन्म 10 अक्तूबर 1912 ई. को उन्नाव जिले के ऊँचगाँवसानी में हुआ। उनकी प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा झाँसी में हुई। लखनऊ विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य में एम.ए., पीएच.डी. करने के बाद 1938 से लेकर 1943 तक उन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय में अंग्रेजी अध्यापक के रुप में कार्य किया। 1943 से 1971 तक वे बलवन्त राजपूत कालेज आगरा में अंग्रेजी के अध्यापक थे। 1971 से 1974 तक के.एम. हिन्दी संस्थान के निदेशक पद पर रहे और वहाँ से अवकाश ग्रहण किया। 1949 से 1953 तक वे अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ के महामंत्री रहे। सेवा निवृत्ति के बाद वे बड़ी तेजी के साथ स्वतंत्र लेखन में लग गए। अंतिम सांस तक साहित्य सृजन करते रहे। 30 मई 2000 ई. को उनका निधन हुआ। शर्मा जी का निधन सचमुच हिन्दी साहित्य जगत के लिए एक अपूरणीय क्षति है। 


डॉ. शर्मा जी के रचनात्मक व्यक्तित्व के बारे में डॉ. विद्यानिवास मिश्र जी ने लिखा है कि – “वे अत्यन्त तटस्थ रहते थे और हुड़दंग से विदुर की तरह अलग और अपने शोधकार्य में तल्लीन रहते। दूसरे हितैषियों के दबाव के कारण मैं आगरा आया, तब से मुझसे परिचय घनिष्ठ हुआ। किसी विद्याप्रसंग की बात होती तो वे बुलाते, किसी पुस्तक के संदर्भ की बात होती तो पत्र भेजते। उनसे बात करना बडा प्रीतिकर लगता था। वे निश्चल भाव से बात करते थे, इसलिए उनसे बहुत बेबाक होकर बात होती थी। जिनकी वह आलोचना करते थे उनके प्रति भी उनके मन में कोई द्वेषभाव नहीं होता था। हल्के प्रयास के बाद चुटीली-से चुटीली टिण्पणी भी दे जाते थे और उसका कसैलापन मालूम भी नहीं होने देते थे। मैंने दो-तीन बार उनसे अपनी संपादकीय पत्रिकाओं के लिए लेख मांगा या खुशी से लेख भी दिया और साक्षात्कार भी। उनका जाना एक ऐसे महान विचारक का जाना है जो हिन्दी का दुर्धर्ष समर्थक रहा ।” (14 जून 2000, इंडिया टुडे) 


डॉ.शर्मा ने आलोचना के लिए आलोचना नहीं की। ‘भारत के प्राचीन भाषा परिवार और हिन्दी’ की भूमिका में उन्होंने लिखा है कि- “मेरी पुस्तक भाषा और समाज ’ में जिन सिद्धान्तों का प्रतिपादन है, उनका यहाँ संवर्धन और विस्तार है, उनमें कहीं मौलिक परिवर्तन करना आवश्कयक प्रतीत नहीं हुआ। कुछ शब्दों की व्युत्पत्ति में फेर-बदल संभव है। जहाँ उस पुरानी पुस्तक को देखते शब्द की व्युत्पत्ति के बारे में यहाँ भिन्न मत प्रकट किया गया हो, वहाँ इस पुस्तक में व्यक्त मत को मेरी वर्तमान धारणा का सूचक मानना चाहिए। जिस विवेचन में अटल नियमों की अस्वीकृति हो, उसमें किसी भी स्थापना के लिए पूर्ण सत्य का दावा करना हास्यास्पद होगा। जो लोग अटल नियमों का प्रतिपादन करते हैं, उनके ग्रंथों में भी संभव है, ‘ऐसा हुआ होगा’, “शायद ऐसा हो”, “हो सकता है कि” इत्यादि की खपत काफी होती है। इस पुस्तक में कोई भी स्थापना चाहे जितने आत्मविश्वास से प्रस्तुत की गई हो, आप अपनी ओर से उसके आगे पीछे संभव और शायद जोड लें। मेरा प्रयत्न यह है कि प्रत्येक स्थापना के विरोध में जो तर्क दिया जा सके उस पर विचार करने के बाद अपनी स्थापना प्रस्तुत करुँ।” ( भारत के प्राचीन भाषा परिवार और हिन्दी भाग-1 पृ.सं.24) 

डॉ. शर्मा यथार्थवादी विचारक थे। “यथार्थ जगत और साहित्य” लेख में एक जगह वे लिखते हैं कि “व्यक्तिवादी विचारधारा क्षीण होकर निर्जीव, विकृत, अस्वस्थ, यथार्थ विरोधी रचनाओं की सृष्टि कर रही है। यथार्थवादी विचारधारा मनुष्य के सर्वांगीण विकास के उद्देश्य से ऐसी रचनाएँ करने की ओर प्रवृत्त है जिससे हमारी सामाजिक चेतना प्रखर हो। और हमारी सौंदर्य बोध की वृत्तियाँ भी संतुष्ट हों। आधुनिक हिन्दी साहित्य की मूल धारा भी हमें इसी ओर बढ़ने की प्ररणा देती है।” (आस्था और सौंदर्य, पृ.सं. 25) 

नई कविता और आधुनिक हिन्दी कविता पर शर्मा जी का विचार इस प्रकार है “ कविता में तरह-तरह के प्रयोग करने की बडी गुंजाईश है। अनेक प्रकार की शैलियों द्वारा कवि अपने भाव और विचार पाठकों तक पहुँचा सकता है। शैली की यह विविधता भावों की अभिव्यंजना में ही नहीं, भावानुभूति और संवेदना के प्रकारों में भी देखी जा सकती है। इस विविधता से हिन्दी कविता की मूल यथार्थवादी धारा समृद्ध होती है। नई कविता और आधुनिक हिन्दी कविता एक ही वस्तु नहीं है। हमें संकुचित अर्थ में ग्रहण की जानेवाली नई कविता के अलावा भी पिछले दस वर्षों में रची हुई आधुनिक हिन्दी कविता का विवेचन करना चाहिए। आलोचना का कोलाहल शांत होने पर नई कविता के कर्दम पर यथार्थवाद की निर्मल धारा बहती दिखाई देगी।” ( आस्था और सौंदर्य-पृ.सं. 174) 

राजनीति और साहित्य के संबंधों के बारे में उन्होंने साफ-साफ लिखा है कि - “आज के अनेक प्रसिद्ध लेखक झकोले खा रहे हैं, आस्था-अनास्था की समस्याओं से व्यथित हो उठते हैं, प्रत्येक राजनीतिक पार्टी से विश्वास उठ जाने की बातें करते हैं। ये सब पार्टियाँ जनता से उत्पन्न होती हैँ, उसकी सेवा के बल पर जीती हैं, यदि वे जनता के लिए ऐतिहासिक रुप से अनावश्यक हो जाती हैं तो उनकी चमक-दमक, रोब-दाब अस्थायी ही सिद्ध होते हैं। यदि लेखक को इस जनता में आस्था हो, वह उसके साथ आगे बढ़ने को तैयार हो तो उसका झकोले खाना बंद हो जाए। कभी-कभी प्रेमचंद के मानवतावद का स्तर न समझकर अपने साथ हम उन्हें भी झकोले खाता हुआ देखने लगते हैं। हमें अपने से प्रश्न करना चाहिए, क्या हमने निर्धन और पीड़ित जनता के पक्ष को प्रेमचंद के समान दृढ़ता से अपनाया है? क्या हम उनके सामने धैर्य, लगन, निस्वार्थ भाव से यह सेवाव्रत निबाहने को तत्पर हैं? प्रेमचंद की परंपरा में अनेक लेखक हैं। लेकिन उन जैसा असंदिग्ध विवेक, अटूट, सहानुभति और अमोघ शब्द-शक्ति का लेखक दूसरा नहीं है। वे “आज भी हमारे गुरु हैं।” और शायद कल भी रहेंगे। ”(आस्था और सौंदर्य, पृ,सं.95) 

भाषा-विज्ञान उनकी रुचि का विषय था जिसके बारे में उनके विचार इस प्रकार हैं- “भाषाई विवेचन एक कौशल है, यह कौशल यंत्रवत निश्चित किया जा सकता है। जैसे उद्योग धंधों की एक टेकनोलॉजी है, वैसे ही भाषा-वैज्ञानिक धंधे की एक टेकनोलॉजी है। टेकनोलाऑजी स्वयं विज्ञान नहीं है, वैसे ही भाषाई विवेचन का कौशल भाषा विज्ञान नहीं है। जब भाषाई टेकनोलॉजी में टेकनीकल शब्दावली की भरमार हो तो उसे विज्ञान समझने के भ्रम से बचना और भी जरुरी है। प्रत्येक विज्ञान में अनुसंधानकर्त्ता का संवेदनशील होना उस विज्ञान के विकास की पहली शर्त है। भाषा विज्ञान के विकास के लिए यह संवदेनशीलता और भी आवश्यक है। कारण यह कि भाषा निसर्गतः संवेदनाओं के निखार और उन्हें दूसरों तक पहुँचाने का माध्यम है। साहित्यिक बोध यहाँ सहायक होता है। कौशल की उपयोगिता असंदिग्ध है। भाषाओं के विवेचन के लिए जितना कौशल आवश्यक और उपयोगी है। उतना अवश्य स्वीकार करना चाहिए। किन्तु बहुत-सी भाषाई टेकनोलॉजी ऐसी है जिसकी उपयोगिता प्रमाणित नहीं हुई। कला के लिए कला, जैसे यह सिद्धान्त अमान्य है, वैसे ही कौशल के लिए कौशल-यह सिद्धान्त भी अमान्य है।” (भारत के प्राचीन भाषा परिवार और हिंदी, भाग-1 पृ.स.22) 

डॉ. शर्मा ने भारतीय इतिहास बोध पर भी बड़ी सार्थक टिप्पणी की है “कश्मीर से लेकर तमिलनाडु तक, बंगाल से लेकर गुजरात तक राष्ट्रीय स्वाधीनता आन्दोलन ने एक भावना-सूत्र में देश की सभी जातियों और भाषाओं को बाँध दिया था। बहुजातीय राष्ट्रीयता का पाठ हमें अंग्रेजों ने नहीं पढ़ाया। युनाइटेड किंगडम ऊर्फ ग्रेट ब्रिटेन में आइरिश, स्काट, वेल्स और अंग्रेज जातियों में काफी कशमकश रही है। इस युनाइटेड किंगडम की यूनिटी युद्धों और हिंसक दमन द्वारा प्राप्त की गयी थी। आयरलैंड-जैसे भिन्न देश का विभाजन करके उसके एक खण्ड को नकली ढंग से यूनाइटेड किंगडम का अंग बनाया गया है। स्काटलैंड अपेक्षाकृत पिछडा रहा है और उन्नसवीं सदी तक अंग्रेज उसे दूसरा देश (प्रदेश नहीं) समझते थे। वेल्स की भाषा अंग्रेजी से भिन्न परिवार की है लेकिन उसे निर्मूल करने में अंग्रेजों ने कुछ उठा नहीं रखा। हमारी राष्ट्रीयता जिस में तमिल, कश्मीरी, सिंधी आदि फलती-फूलती हैं। युनाइटेड किंगडम की राष्ट्रीयता से दूसरे ढंग की है। न हमने संयुक्त राष्ट्र अमरीका की तरह गृहयुद्ध द्वारा उत्तर-दक्षिण को संयुक्त किया है। हमारी बहुजातीय राष्ट्रीयता की नींव अंग्रेजी राज कायम होने से पहले डाली गई भी, यहाँ टीपू सुल्तान और माधव जी सिंधिया ने देश में एकता स्थापित करने का प्रयत्न किया था। यहाँ 1857 में दिल्ली के झंडे के नीचे फिर देश को स्वाधीन करने का प्रयत्न किया था और 1920 और उसके बाद के व्यापक जन आंदोलनों ने इस एकता को दृढ़ किया था। इसलिए भारत की विशाल मानवता के ऐतिहासिक स्वाधीनता आन्दोलन का प्रभाव विभिन्न भाषाओं के साहित्य पर पड़ना लाजमी था। साहित्य ने राष्ट्रीयता के प्रभाव को प्रतिबिंबित किया। इतना ही सत्य नहीं है। सच तो यह है कि बहुधा राजनीतिक नेताओं से पहले और उनसे अधिक सुसंगत रुप में साहित्यकारों ने राष्ट्रीयता का प्रचार और प्रसार किया।”(आस्था और सौंदर्य, पृ.सं.176-177) 

डॉ. शर्मा ने साहित्येतिहास की पुर्नव्याख्या इस प्रकार की है “ मानव जाति समस्त धरती पर फैली हुई है, समस्त काल में उसका प्रसार है। इस मानव समाज को आपस में बाँधनेवाला कौन है? वह कवि है। और कवि उसे बाँधता है भाव और ज्ञान के द्वारा। भाव और ज्ञान वर्ड्सवर्थ के लिए परस्पार विरोधी नहीं हैं। वे एक दूसरे के पूरक हैं, एक साथ चलते हैं। कविता के लिए भावशक्ति और ज्ञानशक्ति का संयोग दरकार है। फ्रांसीसी राज्य क्रांति ने जो भाईचारे का नारा दिया था, उसे हम वर्ड्सवर्थ को अंग्रेजी कविता में लागू करते हुए देखते हैं।”(आस्था और सौंदर्य, पृ.199) 

कोई भी वाद एक दी धारा में नहीं बहता, अथवा उसकी कोई एक अभिव्यंजना शैली नहीं होती । इस बात को मानते हुए उन्होंने छायावाद का उदाहरण देते हुए एक उललेखनीय बात कही कि “जिसे रोमांटिसिज्म (छायावाद, स्वच्छंदतावाद) कहा जाता है, वह अनेक प्रकार का था। कभी-कभी एक ही कवि में कई तरह का रोमांटिसिज्म देखने को मिलता है। इंगलैंड के रोमांटिक कवियों में बायरन ने व्यंग्यपूर्ण कविताएँ सबसे अधिक लिखीं। उनसे पहले के युग में ड्राइडन और पोप बहुत शक्तिशाली व्यंगयकार हुए थे। बायरन ने इससे बहुत-सी बातें सीखीं किंतु अपने युग के अनुरुप उन्होंने व्यंग्य कविता को नई दिशा में मोड़ा।” (आस्था और सौंदर्य, पृ.सं.208) 

शर्मा जी के निधन पर लिखते समय डॉ. विद्यानिवास मिश्र ने कहा है कि “आर्य शब्द नस्ल का द्योतक नहीं है। यह अपने प्राचीन साहित्य में प्रयोग होता रहा है। इस स्थापना में वे मार्क्सवादी इतिहासकारों से गहरा मतभेद रखते थे। वे मार्क्सवाद के मूल सिद्धान्तों को स्वीकार करते हुए भी धरती की संस्कृति से अलग होने को तैयार नहीं थे। जड़ से उखड़ने में उनका विश्वास न था। इसलिए वे परिवार के दायित्व के प्रति भी बड़े गंभीर थे। दांपत्य जीवन में वे एकनिष्ठ थे। मैंने देखा है कि आगरा में उनकी पत्नी अस्वस्थ रहती थी लेकिन उनकी सेवा की व्यवस्था किए बिना वे घर से बाहर नहीं निकलते थे। अत्यन्त धीर, स्वाध्यायपरायण व्यक्ति होते हुए भी बडे पुत्र के निधन का शोक संभालते हुए वे कहीं न कहीं भीतर से टूट गए थे। उसके बाद ही उनका स्वास्थ्य गिरने लगा था।”(इंडिया टुडे 14 जून 2000) 

अंत में डॉ. विद्यानिवास मिश्र के इस वाक्य से मैं इस आलेख का समापन कर रहा हूँ – “डॉ. राम विलास शर्मा को मैं पत्थरों में राह बनानेवाली और पत्थरों को रत्न का रुप देनेवाली झर-झर करती विशाल नदी के रुप में स्मरण करता हूँ और उन्हें अपनी विनम्र श्रद्धांजलि देता हूँ।” (इंडिया टुडे 14 जून 2000) 



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