मोहन राकेश कृत आधे-अधूरे में अभिनय के अनुपम प्रयोग : एक पुरुष चार भूमिकाएँ






मोहन राकेश कृत आधे-अधूरे में अभिनय के

अनुपम प्रयोग : एक पुरुष चार भूमिकाएँ

                             प्रो.एस.वी.एस.एस. नारायण राजू

वाग्मिता, 2017

ISBN No. 978-81-931773-2-7

रंगशिल्प की दृष्टि से मोहन राकेश के नाटकों में कई प्रयोग हुए हैँ । इस दृष्टि से आधे-अधूरे नाटक का उपस्थापन खंड नाटककार के प्रयोगवादी रुझान को तो संकेतित करता ही है साथ ही नाटक विधा को नए आयाम का  दिशा निर्देश भी करता है । परंपरा का ज़िक्र करना मैं यहाँ आवश्यक समझता हूँ । हमारे यहाँ नाटकों की रुढ़ परंपरा यह रही है कि उनमें नंदी वाक्य (अथवा सूत्रधार कथन) मंगलाचरण भरत वाक्य का समावेश अत्यंतिक एवं अनिवार्य होता था, किंतु इधर कुछ वर्षों से यह रुढ़ परंपरा टूटती चली आई है और अब  मोहन राकेश के इस नए प्रयोग ने उस भव्यता एवं आधुनिकता के मार्ग की ओर प्रशस्त किया है । नाटककार की यह दिमागी उपज की भाव-भंगिमा एवं वस्त्र परिवर्तन एक ही व्यक्ति से चार पुरुष की भूमिकाएँ अभिनीत करवाई जाएँ, निःसंदेह आधुनिक हिंदी रंगमंच को और अधिक सुदृढ़ बनाने के निमित्त, अत्यंत मूल्यवान एवं उपयोगी सिद्ध होगी । आधे अधूरे में एक परुष के द्वारा चार पुरुषों की भूमिका निभाने वाला प्रयोग प्रेक्षक और अभिनेता को निकट लाता है ।
 
का.सू.वा. ( काले सूट वाला आदमी), पुरुष एक, पुरुष दो, पुरुष तीन तथा पुरुष चार की भूमिकाओं में भी है । उम्र लगभग उनचास-पचास । चेहरे की शिष्टता में एक व्यंग्य । पुरुष एक के रुप में वेशांतर : पतलून कमीज़। ज़िदगी से अपनी लड़ाई हार चुकने की छटपटाहट लिए। पुरुष दो के रुप में : पतलून और बंद गले का कोट । अपने आप से संतुष्ट, फिर भी आशंकित। पुरुष तीन के रुप में : पतलून टी-शर्ट । हाथ में सिगरेट का डिब्बा। लगातार सिगर्रट पीता । अपनी सुविधा के लिए जीने को दर्शन पूरे हाव-भाव में । पुरुष चार के रुप में : पतलून के साथ पुरानी काट का लंबा कोट । चेहरे पर बुजुर्ग होने का खास एहसास काइयाँपन ।ब्रेख्त के निरपेक्षता सिद्धांत (एलियमेशन) के आधार पर यह प्रयोग प्रेक्षक की तन्मयता को भंग कर उसे इस बात का संकेत देता है कि वह जीवन की प्रतिरुपता को नहीं नाटक को देख रहा है । यह स्थिति उसे वस्तुस्थिति को पहचानने और उसका विश्लेषण करने का भी अवसर प्रदान करती है । कुछ लोगों ने इस प्रयोग को रंगमंच की दृष्टि से अनुपयोगी और अव्यवहारिक बताया है, पर शिव ओमपुरी ने एक ही साथ चार भूमिकाएँ अदा करके वैविध्य को सफलतापूर्वक निभाया है । चार अलग-अलग व्यक्तियों का प्रयोग कर उन्होंने भी यह सफल अनुभव किया है एक ही पुरुष द्वारा चार भूमिकाएँ अदा करवाना अधिक कलात्मक अनुभव देता है । पर यह अनुभव जागरुक रंग-कल्पना की मांग करता है ।

      हमें तो इतना ही कहना है कि मोहन राकेश ने एक ही व्यक्ति से चार पुरुषों की भूमिका अभिनीत करवाने का जो प्रयास इस नाटक में किया है वह एक क्रांतिकारी कदम है और साहित्यिक जड़ता और नाटक और रंगमच की खाई को पाटने का एक सशक्त सक्षम प्रयास है। रंग-शिल्प की दृष्टि से मोहन राकेश के नाटकों में आधे-अधूरे दो कारणों से विशेष महत्वपूर्ण हैं। एक तो इसलिए कि इसमें ऐतिहासिकता की आड़ लिए बिना आधुनिक मानव की यातनापूर्ण नियति को परिवार जैसी सामाजिक संस्था के संदर्भ में मनोवैज्ञानिक आधार पर अंकित करने की चेष्टा की गई है, दूसरा इसलिए कि यह नाटक प्रयोगशील रंग-चेतना से संपन्न है । चार पुरुषों की भूमिकाओं में बार-बार एक ही अभिनेता मंच पर उतारा गया है । नाटक के आरंभ और अंत में मोहन राकेश ने संकेत किया है कि यह केवल शिल्प-प्रयोग नहीं है, इसके मूल में इस नाटक का आधारभूत विचार निहित है । काले सूट वालों की भूमिका की सार्थकता यही है कि वह नाटक की केंद्रीय संवेदना के साथ इस प्रयोग के एकात्म पर प्रकाश डालता है। उसका कहना है, ‘’आप शायद सोचते हो कि मैं इस नाटक में कोई निश्चित इकाई हूँ....परंतु मैं अपने संबंध में निश्चित रुप से कुछ नहीं कह सकता, इसी तरह जैसे इस नाटक के संबंध में कुछ नहीं कह सकता, क्योंकि यह नाटक भी अपने में मेरी ही तरह अनिश्चित है। 

            ऐसा इसलिए कि मैं इसमें हूँ और मेरे होने से ही सब कुछ इसमें निर्धारित या अनिर्धारित है। इस अनिश्चितता का अभिप्राय यह प्रतीत होता है कि यह नाटक किसी खास आदमी की कहानी न होकर किसी भी आदमी की कहानी हो सकता है । इसलिए काले सूट वाला पहले ही बतला देता है कि वह दर्शकों के सामने किसी एक व्यक्ति के रुप में ही नहीं, बल्कि अनेक व्यक्तियों के रुप में रह-रहकर प्रकट होता रहेगा। नाटक के आरंभ में काले सूट वाला अपने आपको एक अनचीन्हे आम आदमी के रुप ही प्रस्तुत करता है, सड़क के फुटपाथ पर चलते आप अचानक जिस आदमी से टकरा जाते हैं, वह आदमी मैं हूँ। लेकिन उसका स्रष्टा स्वयं अपने भीतर इस संबंध में आश्वस्त नहीं जान पड़ता कि भिन्न-मुखैटों के नीचे वास्तव में एक ही चेहरा पेश कर रहा है । इसलिए उसने एक दूसरे से भी अपने पात्र की अनिश्चितता की व्याख्या की है । प्रत्येक मनुष्य में अंशतः अमूर्त्त मनुष्य ही व्यक्त होता है। हर मनुष्य से मानव सामान्य का ही कोई-न-कोई अंश प्रकट होता है । काले सूट वाले का कहना है, विभाजित होकर मैं किसी-न-किसी अंश में आप में से हर एक व्यक्ति हूँ । इस आर्थ में प्रत्येक मनुष्य अंशतः अमूर्त मानव की प्रतिनिधिक अभिव्यक्ति है,टकराने के क्षण में आप  मेरे लिए वही होते हैं जो मैं आपके लिए होता हूँ । इसलिए जहाँ इस समय मैं खड़ा हूँ, वहाँ मरी जगह आप भी हो सकते थे दो टकराने वाले व्यक्ति होने  के नाते आप में और मुझमें बड़ी समानता है।समानता यही है कि दोनों  टकराने वाले एक दूसरे के लिए व्यक्तित्वहीन कोई आदमी भी रह जाते हैं क्योंकि राह चलते टकरा जाने की स्थिति में आप सिर्फ घूरकर मुझे देख तो लेते हैं, इसके अलावा मुझसे कोई मतलब नहीं रखते हैं कि मैं कहाँ रहता हूँ, क्या काम करता हूँ, किस-किस से मिलता हूँ और किन-किन परिस्थितियों में जीता हूँ। आप मतलब नहीं रखते क्योंकि मैं भी आपसे मतलब नहीं रखता।
   
              काले सूट वाले के माध्यम से मोहन राकेश ने इस नाटक आम आदमी या किसी भी आम आदमी की कहानी बतलाया है इसलिए चारों पुरुष ही नहीं, स्त्री भी उसी अमूर्त्त परिकल्पना का अंग होनी चाहिए। मोहन राकेश ने इस ओर संकेत करते हुए काले सूट वाले से कहलवाया है, इस परिवार की स्त्री के स्थान पर कोई दूसरी स्त्री किसी दूसरी  तरह से मुझे झेलती या वह मेरी भूमिका ले लेती और मैं उसकी भूमिका ले के उसको झेलता। स्पष्ट है कि स्त्री या पुरुष होने से कोई फर्क नहीं पड़ता। मुख्य बात है झेलने की और यह झेलना ही मानव नियति है, स्त्री की भी और पुरुष की भी। दोनों ओर झेलने की विवशता है इसलिए झेलने से मुक्ति की चाह भी दोनों ओर है । जुनेजा महेंद्रनाथ की मुक्ति की मांग स्त्री से करता है,तुम किसी तरह छुटकारा नहीं दे सकती उस आदमी को?” इस पर स्त्री उत्तर देती है, छुटकारा? मैं? उन्हें?  कितनी उल्टी बात है?” ‘आधे-अधूरे नाटक में मोहन राकेश ने पात्रों के नामों का प्रयोग न करके इन्हें काले सूट वाला आदमी, पुरुष एक, पुरुष दो, पुरुष तीन, पुरुष चार, स्त्री, बड़ी लड़की, छोटी लड़की और लड़का कहा है। इसके द्वारा भी नाटककार यह प्रदर्शित करना चाहता है कि आधुनिक समाज में मनुष्य की निजता और पहचान खोती जा रही है। काले सूट वाला आदमी पुरुष एक, पुरुष दो, तीन,चार, की भूमिका में उतरता है। यहाँ एक पात्र का कई भूमिकाओं में उतरता और नाटककार द्वारा व्यक्तिवाचक संज्ञाओं के स्थान पर जातिवाचक संज्ञाओं का प्रयोग प्रभावोत्पादक ढ़ग से किया गया है।

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