स्त्री विमर्श
स्त्री विमर्श
प्रो. एस.वी.एस.एस.नारायण राजू
स्त्री केंद्रित हिंदी कहानियों का बुल्गी अनुवाद.
Indology
Department, Sofia University, Sofia, Bulgaria.
ISBN no
978-945-323-928-3
भारत देश में नारी को एक ओर लक्ष्मी, दुर्गा, सरस्वती आदि देवताओं के रुप में मानकर पूजा करने की परंपरा है तो दूसरी ओर नारी को पुरुष की दासी मानकर उसकी अवहेलना करने की कुप्रथा भी है, लेकिन गाँधी जी स्त्री को न देवी मानते थे न ही दासी. उन्होंने तो स्त्री को पुरुष की सहचारिणी के रुप में या जीवन संगिनी की रुप में स्वीकार किया था. उनका विचार था कि नारी पुरुष की वासनापूर्ति का एक साधन मात्र नहीं है और न ही घर की रसोई की बँधिनी. वह पुरुष के साथ सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, औद्योगिक आदि सभी क्षत्रों में बराबर विकास प्राप्त करने और देश तथा समाज की उन्नति में हाथ बँटाने का हकदार है.
यह सर्वविदित बात है कि स्त्री और पुरुष समान कहते हैं परंतु अंतर यह है कि एक ज्यादा शोषित है और एक ज्यादा स्वतंत्र. स्त्रियों को चार वर्गों में विभाजित कर सकते हैं. प्रथम वर्ग उन स्त्रियों की है जो आत्मनिर्भर एवं बुध्दिजीवि हैं. वे पुरुषों से कंधे मिलाकर चलती हैं और उनकी प्रतिभा और लगन पुरुष को उनसे निम्नतर होने का बोध कराती है लेकिन ऐसी औरत को मर्दाना औरत का नाम देकर दबाने और अपमानित करने का काम पुरुष वर्ग करता है. उन्हें हर कदम पर चुनौतियों को सामना करना पडता है. दूसरा वर्ग उन स्त्रियों की है जो पढी लिखी हैं. उनके लिए परंपरा और नैतिकता सबसे महत्वपूर्ण है. ऐसी मानसिकता में उनको पाला जाता है कि वे पुरुषों के हर जुर्म को बिना विरोध किए पुरुष के अमानवीय व्यवहार को सहकर सबको खुश रख सके. समाज में इनकी संख्या बहुत ज्यादा है और सबसे ज्यादा शोषण इन्हीं के साथ हो रहा है. तीसरा वर्ग अशिक्षित और गरीबी स्त्रियों की है. अपने परिवार की भूख मिटाने के लिए पूरी आयु मेहनत करने के बाद अपने बारे में सोचने के लिए उनमें दम न होती है. इनका शोषण पूरा समाज करता है. चौथे वर्ग में ऐसी स्त्रियाँ है जो समाज कल्याण के कार्यों द्वारा समाज को सही दिशा देने का कार्य कर रही है. इनमें लेखिकायें भी हैं जो स्त्री के भविष्य को सुंदर बनने का प्रयत्न कर रही है. ये हर क्षेत्र में क्रियाशील हैं लेकिन इनकी संख्या बहुत कम है स्त्रीवाद व स्त्री विमर्श स्त्री और पुरुष के बीच नकारात्मक भेदभाव के स्थान पर स्त्री के प्रति सकारात्मक पक्षपात की बात करता है. प्रमुख लेखिका श्रीमती मैत्रेयी पुष्पा जी के अनुसार “नारीवाद ही स्त्री विमर्श है, नारी की यथार्थ स्थिति के बारे में चर्चा करना ही स्त्री विमर्श है” (हंस – अक्तूबर 1996 पृ.सं.75)
स्त्री के बारे में क्षमा शर्मा कहती है कि “ पुरुष पचास औरतों के साथ संबंध रखकर अच्छा कहला सकता है. स्त्री एक प्रेम करके भी चरित्र हीन कही जा सकती है और अफसोस की बात यह है कि स्त्री की उस छवि को बनाने में न धर्म शास्त्र पीछे हैं न ही साहित्य. (स्त्रीवादी विमर्श समाज और साहित्य पृ.सं.101)
स्त्री साहित्य स्त्री की अनुभूति का साहित्य है. स्त्री साहित्य ने स्त्री की अस्मिता और अनुभवों को केंद्रीय महत्व दिया. आधुनिक कालीन स्त्री साहित्य के श्रीगणेश कथा साहित्य से होता है. स्त्री की अस्मिता और राष्ट्र की अस्मिता को पर्याय के रुप में लेखिकाओं ने प्रस्तुत किया. समकालीन परिवेश में महिला लेखिकओं ने स्त्री समाज की त्रासदी और विडंबना, उसकी शोषित स्थिति, उसकी सामाजिक, आर्थिक पराधीनता, रुढिग्रस्त मान्यताओं एवं धारणाओं से जुडे प्रश्नों को खुले, तीखे एवं साहसपूर्ण ढंग से अपनी कहानियों के माध्यम से हमारे सामने रखा है. उषा प्रियंवदा, कृष्णा सोबती, मन्नू भंडारी, ममता कालिया आदि वरिष्ट लेखिकाओं से लेकर पिछले दो दशकों के दौरान इस क्षेत्र में अधिक सक्रिय एवं चर्चित मैत्रेयी पुष्ण, मृदला गर्ग, नासिरा शर्मा, सूर्यबाला, राजी सेठ, प्रभा खेतान, मृणाल पाण्डे, अनामिका, कात्ययनी की एक लंबी परंपरा है जिन्होंने अपनी रचनाओं में ऐसी स्त्री पात्रों को प्रमुखता दी है जो अपनी स्वतंत्र सोच रखती है. उनकी रचनाओं में चित्रित स्त्री हमारे समय की वास्तविक स्त्री है. उसकी नियति को, आत्म संघर्ष को, अस्मिता को, मुक्ति चेतना को हमारे युग की जटिलताओं के संदर्भ में जानने का जो प्रयास किया है वह हमारे विमर्श का आधार बनना जरुरी है.