बेईमान हैं हम
बेईमान हैं
हम
तेलुगु मूल : शीला
वीर्राजु
हिंदी
अनुसृजन : प्रो. एस.वी.
एस. एस. नारायण राजू
युग स्पंदन, जनवरी-सितंबर 2001
हम करते हैं चर्चा जनता की बारंबार
हम खड़ा करते हैं अपने को समूहों के बीच
आसानी से पहुँचते हैं जन समूहों के बीच
सपनों एवं कल्पनाओं में विचरण से हमारे हाथों में अक्षर
अक्षरों को चारों तरफ गाढ़कर फूल और वाटिकाएँ उगाते हैं
उनके रंग और खुशबू को चढ़ाकर खुश और सुगंधित होते हैं
वास्तव में यही चाहिए हमको।
खाद की जरुरत होती है बीज बढिया उगाने के लिए
जनता का श्रम बन जाता है खाद
बन जाते हैं पानी के स्त्रोत जनता के आँसू
तब मंजिल तक पहुँच जाते हैं हम।
एक वाटिका तैयार हो जाती हमारे लिए विहार करने के लिए
तब वाटिका के अंदर हम, बाहर जनता
हममें से तो तीन चौथाई का यही काम होता है
वाटिका को निहार-निहार खुश होते जाएं।
हमेशा खुद के बारे में ही सोचते हम,
जनसमूह की आती नहीं याद।
यदि याद आ भी जाती है तो, बारों में विदेशी शराब में तैरते
हुए
हँसते हैं ‘जोक’ काटकर हम यहाँ की नशाबंदी आंदोलन पर
पाश्चात्य स्वार्थ नीति से फली जाति-विभाजन पर खुश होकर
यहाँ के अलगाव आंदोलनों की सराहना करते हैं वीर कार्य समझ
कम्युनिस्ट देशों के ‘कैबरे’ एवं सौंदर्य-प्रतियोगिता का कर खंडन
यहाँ की नारी को व्यापार का माध्यम बनाते हैं।
पहले तो नेताओं पर आग की तरह बरस पड़ते हैं
कुर्सी दिखाने से यशोगान करते हैं
खुद को जिम्मेदार मानकर कहते हैं ?
कविता एक हथियार है समाज को ठीक करने के लिए
हम हैं बिल्कुल स्वार्थी, चाहिए हमको सिर्फ कीर्ति
न चाहिए जनता पहले हमारा सब कुछ है, बाद में ही जनता
सचमुच हम हैं बेईमान।