मूल्यभ्रष्ट युग का यथार्थ अंकन : पैर तले की जमीन
मूल्यभ्रष्ट युग का यथार्थ अंकन : पैर तले की जमीन
प्रो.एस.वी.एस.एस. नारायण राजू
योग्यता, October – November – 2014,
ISSN No. : 2348 - 4225
“पैर तले की जमीन” मोहन राकेश की अधूरी नाट्यरचना
है। उनके देहांत के पश्चात प्रकाशित हुई
हैं। अतः इसे पूर्णतः मोहन राकेश की मौलिक रचना के रुप में स्वीकार नहीं कर सकते
हैं “पैर तले की जमीन” में मोहन राकेश
ने शब्द और नेपथ्य की ध्वनियों के मिले-जुले प्रभाव को रंगमंच पर एक नये प्रयोग के
रुप में प्रस्तुत कर वर्तमान युग में व्यक्ति के सामाजिक जीवन से वैयक्तिक जीवन तक
व्याप्त विसंगति, निरर्थकता, मूल्य-विघटन तथा मानवीय संबंधो के खोखलेपन को मूर्त
किया है । आधे-अधूरे के समान इस रचना में भी मोहन राकेश ने विसंगतिपूर्ण सामाजिक
परिवेश में पारिवारिक जीवन में विघटित मूल्यों तथा आपसी संबंधों को लेकर नवीन ढंग
से आधुनिक जन-जीवन की यथार्थ के धरातल पर व्याख्या की है ।
आज अर्थ की महत्ता ने व्यक्ति को ‘कुछ बनने’ की अन्धी दौड में इस तरह से व्यस्त कर
दिया है कि भौतिक उपलब्धी से बनने की प्रक्रिया ही उसके दायित्व को विघटित कर उसे
मानसिक रुप से तोड रही है । व्यक्ति को स्थिरता देनेवाली पैर तल के जमीन ही खिसकती
प्रतीत हो रही है । इस मानसिक विघटन ने समाज के प्रत्येक वर्ग को प्रभावित कर उनकी
भिन्न - भिन्न विशिष्टताओं को नष्ट कर दिय़ा है । निम्न व्यक्ति से आभिजात्य वर्ग तक
आज सब टूटे विक्षिप्त और धुरीहीन मानव है । विडंबना यह है कि अपनी इस स्थिति को
प्रत्यक्ष रुप में स्वीकार करने की अपेक्षा हम अपने को आडंबर के एक लबादे में छिपाए
रखते हैं । और दूसरों को बेनकाब करने की निम्न वृति में जुटे रहते हैं। सब एक
दूसरे की खोल से वाकिफ है एक दूसरे की खोल उतरते देखना चाहते हैं। मगर अपना कोल
बनाए रखते है ।(1) यहाँ नाटककार आधुनिक
मानव की लक्ष्य हीनता तथा उनके जीवन के निष्क्रियता बोध को स्पष्ट करने के पक्ष
में कई जीवंत उदाहरण प्रस्तुत करते है ।
यह नाटककार विघटित जीवन मूल्यों तथा
परिवेश जन्य आर्थिक एवं सामाजिक विषमताओं के प्रभाव में समाज के अधिकांश लोगों की
नैतिक पतनावस्था का यथार्थ चित्रण प्रस्तुत करते हुए अपने यांत्रिक जीवन से ऊबे
हुए लोगों के उदासीपन एवं उनकी बेचैनी की अभिव्यक्ति को कई अवसर प्रदान करते हैं।
विसंगत नाटकों के समान फलागम की ओर अग्रसर होने वाली कथा वस्तु निश्चित न होने पर
भी कई साधारण संदर्भों में असाधारण स्थितियों का यथार्थ अंकन होने के कारण इस
नाट्य रचना में युगीन परिवेश की विसंगति की झलक मिलती है । इस नाटक को पूर्णतः
मोहन राकेश की मौलिक रचना के रुप में स्वीकृति न मिली यद्यपि इस में वस्तु शिल्प
नाट्य शिल्प रंग शिल्प की दृष्टि से प्रयोग के कई नए आयाम द्रष्टव्य हैं। इस की
कथा वस्तु इस प्रकार है-“टूरिस्ट क्लब ऑफ इंडिया ” ही इस का केन्द्रीय घटना
स्थल है। जिस में पुल टूट जाने के कारण कैद हो जाने वाले कुछ लोगों की प्रतिक्रिया
पर नाटक की कथा वस्तु आधारित है।
क्लब में नियमित रुप से आने वाले यह लोग
व्यक्तिगत जीवन में पराजित और टूटे हुए लोए हैं । अपनी खालीपन पडी और बिखराव को
भूलने के लिए वे ताश के पत्तों, मद्यपान और पाश्चात्य संगीत के शोर का सहारा लेते
हैं । क्लब के बार में अब्दूल्ला और चौकीधार नियामत के समान ही थे। आभिजात्य
वर्गिय पात्र झुन-झुन वाला पंडिन आयुब और सल्मान “पैदायशी
बुझदिल है ”। पुल ट्टने पर क्लब में गिर जाने पर कुछ घंटो का
समय इन के वास्तविक रुप को बेनकाब कर जाता है । समाज में सुसंस्कृत कहलानेवाला
व्यक्ति भी पैर तले की जमीन खिसकने पर मृत्यु का क्षण सामने देखकर(एकदरिंदा) बन
सकता है । अयूब अपने वैवाहिक जीवन में असफल रहने की कुण्टा को इस संकट घड़ी का लाभ
उठाकर दो असहाय लडकियों (रीता और नीरा) से मिटाना चाहता है। अयूब और सलमा के
सम्बन्धों पर छायी “कब्रिस्तान” की
अनुभूती वर्तमान जीवन के एक दूसरे सत्य को उभारती है जाहाँ व्यक्ति पारस्परिक
संम्बधों के खोखलेपन से निराश होकर आत्महन्ता प्रवृत्तियों की ओर बढ़ रहा है ।
नित्य प्रति जुए और मदयपान में मग्न रहनेवाला पण्डित और झुनझुनवाला को भी आसन्न
मृत्यु एक दूसरे रुप में सामने आती है । मृत्यू के भय को भूलने के लिए पण्डित से
लडनेवाला झुनझुनवाला वस्तुतः समाज के पूंजीपति वर्ग का प्रतिनिधि है । जिसके व्यापक
स्तर पर सामाजिक शोषण करने के साथ-साथ पण्डित जैसे कायर चरित्रों का वैयक्तिक शोषण
भी किया है। नाटक के अन्तिम दृश्य में इन दोनों पात्रों के वैयक्तिक जीवन की
विसंगति उभरकर आती है । चारों ओर से किसी सहायता की आशा न होने पर ये पात्र
सामूहिक आत्महत्या का निश्चय करते हैं । इसी अन्तिम दृश्य में उनके साहस, कायरता,
नपुंसक आचरण और वैयक्तिक विघटन पर प्रकाश पडता है तथा समाज के विभिन्न वर्गों के
प्रतिनिधि ये पात्र जीवन में पहली और अन्तिम बार अपने ओढे हुए मुखैटे को उतारकर
अपनी पराजय और अनैतिक आचरण को स्वाकार करते हैं क्योंकि पैर तले के जमीन से जमीन
खिसक चुकी है। पर तभी पानी घटने लगता हैं और बाढ़ में घिरे इन पात्रों सहायता के
लिए लोग पहुँच जाते हैं और ये लोग अपने वास्तविक रुप को पुनः मुखौटे से ढंककर
एक-दूसरे से कट जाते है। जैसे “एक इतिहास घटित होते-होते रुक
गया ।(2) पैर तले की जमीन खिसकने पर (आसन्न मृत्यु के क्षण में) मनुष्य के
वास्तविक रुप को दिखानेवाला यह नाटक अपने कथानक में वर्तमान जीवन का सशक्त प्रतीक
है ।
जहाँ जीवन की आस्थाएँ और विश्वास भूमिसात हो चुके हैं धर्म और नीति की
मान्यताएँ ध्वस्त हो गयी हैं सम्बन्ध विघटन से मनुष्य अजनबीपन जीवन की निरर्थकता
और बेतुकेपन की यन्त्रणा का असह्रा बोझ ढ़ो रहा है। नाटक के पात्रों का जीवन हमारे
सामायिक जीवन को, जहाँ मनुष्य के जीवन का आधार-स्तम्भ उसके पैर पले की जमीन ही
खिसक चुकी है, विसंगति और बेतुकेपन को सजीव व मार्मिक रुप मूर्त करता है । ढहती हुई
सामाजिक व नैतिक मूल्यों और निरर्थकता बोध से ग्रस्त आम लोगों की जीवन-शैली की
प्रतिबिम्बित करने के लक्ष्य को लेकर नाटककार पुछ ऐसे चुने हुए लोगों की व्यथा-कथा
के रुप स्वीकार कर चुके हैँ।
“पैर तले की जमीन” नाटक के सभी चरित्र
यथार्थवादी हैँ और वर्तमान जीवन में मनुष्य के अस्तित्व की निरर्थकता और बेतुकेपन
को उद्घाटित करने में सक्षम हैं । यही कारण है कि वैयक्तिक चरित्र अति संवेदनाशील
लोगों का प्रतिनिधित्व करता है, जो कल्पित भय से ही भयभीत करते हैं। झुनझुनवाला
पूँजीपति वर्ग का प्रतीक है, जो आर्थिक स्तर के साथ-साथ लोगों का वैयक्तिक शोषण भी
कर रहा है । नाटककार ने इस चरित्र के शब्दों में ही उसकी विशेषताओं को उभारा है-“.सीधे-सीधे कहूँ तो सब को अपना व्यापार बनाया । इसका दाम इतना, उसका दाम
उतना । हर चीज का हर बात का प्रतिनिधि मैं था ।” (3) उसके
शोषण का प्रमाण पंडित का जीवन है तो अपनी पत्नी से उसके सम्बन्ध देखकर घर से निर्वासित
जिन्दगी बिता रहा है। पण्डित का जुआरी व मद्यम चरित्र समाज में सर्वश्रेष्ट वर्ग
(ब्राह्राण) की पतनोन्मुख अवस्था का द्योतक है। अयूब और सलमा का वैवाहिक सम्बन्धों
के बोझ को ढोता जीवन वर्षों से स्थापित उस वैवाहिक संस्था की निरर्थकता को दिखाता
है, जो व्यक्ति के जीवन का आधार मानी गयी है ।
रीता और नीरा आभिजात्य वर्ग की ये
लडकियाँ जीवन के प्रारम्भ में ही मनुष्य के भीतरी दरिन्दे से परिचय पाकर “कब्रिस्तान” बन चुकी है । वस्तुतः नाटक के सभी एक –
दूसरे के वर्ग से जुड़कर भारतीय समाज के सामान्य वृत्ति की परिधि का निर्माण करते
हैं परिवेष्टित है । उसी में अन्तर्भूत हैं ।” (4) “पैदायशी
बुझदिल” होना ही आज हमारी नियती की पहचान है । इस नाटक के
विभिन्न पात्रों को सामायिक जीवन में कटु अनुभवों को भोगनेवाले कई वर्गों के
प्रतिनिधियों के रुप में चुनकर उनके माध्यम से भारतीय समाज की विविधरुपता को दर्शाने
का जोरदार प्रयत्न किया गया है ।
“पैर तले की जमीन” का रुपबन्ध भी मोहन
राकेश के अन्य नाटकों की भाँति यथार्थवादी है । दो अनुवर्तनों का घटना-व्यापार एक
ही दृश्य-बन्ध पर घटित होता है । दृश्य-बन्ध की इस सीमा के कारण पात्रों के जीवन
और चीरत्र के कई प्रसंगों और पारस्परिक सम्बन्धों को अन्तिम दृश्य में
व्याख्यात्मक रुप में प्रस्तुत करना पडा है । शिल्प की यह दुर्बलता मोहन राकेश के
प्रत्येक नाटक में हैं अनुवर्तन एक में शिल्पगत कसाव दूसरे की अपेक्षा बहुत अधिक
है । अपने अन्तिम दिनों की खोज कर रहे थे। यह नाटक भी उसी प्रयोग-यात्रा का एक
प्रमाण है। यद्यपि अधूरा रह गया है। पूरे नाटक में दरिया के पानी,पुल की कडियों के
टूटने तथा तट के पत्थरों के गिरने की ध्वनि वातावरण के प्रभाव की दृष्टि से एक
पात्र की भूमिका निभाती है। शिल्प को कसाव देने के साथ-साथ नेपथ्य की ये ध्वनियाँ
नाटक के भय और तनावपूर्ण वातावरण को भी मार्मिकता देती है।
इस नाटक की भाषा “आधे-अधूरे” का अगला सोपान है। वर्तमान युग का
विघटनशील समाज, अर्थ-प्राप्ति की अन्धी दौड में “कुछ बनने” की प्रक्रिया से लोगों का टूटना, जो मनुष्य को मानसिक तनाव, अकेलापन,
निरर्थकता की अनुभूती से यंत्रणा देनेवाला मूल्य-विघटन के संवादों में बहुत
सशक्तता से अभिव्यक्त हुआ है,” आदमी सच कितने डरपोक होते
हैँ।”(5) “……हमेशा तभी सुलगता है जब
आदमी हिम्मत हारने लगता है”(6)” औरत कब्रिस्तान क्यों बन
जाती है”(7) “जब मुसीबत आती है तो सब
अकेले ही होते है”(8)”मुझे एक औरत
चाहिए। औरत...जो मौत के खतरे के बावजूद मेरा साथ दे सके”(9)
नाटक का अनुवर्तन एक मोहन राकेश का है और शेष नाटक मृत्यु के पश्चात कमलेश्वर ने
उनकी डायरियों के आधार पर लिखा है। वस्तुतः यथासाध्य प्रयत्न होते हुए भी नाटक
अधूरा उपयोग है उसकी रंगमचीय शिल्पगत सम्भावनाएँ मोहन राकेश कृत “आधे-अधूरे” के विकसित सोपान के रुप में दिखाई पडती
है और इस में भी युगीन संदर्भोंचित मानवीय सम्बन्धों के स्वरुप – निर्धारण में कई
महत्वपूर्ण तथ्य प्रकाश में आये हैं और नेपथ्य में से प्रकाश व्यवस्था एवं
ध्वनि-प्रयोगों द्वारा इस में भी नाटकीय – भाषा के सामान्य उपयोग को नगण्य-सा
सिद्ध कर, नाटककार अपने मन्तव्य को और भी प्रभावात्मक ढंग से संप्रेषित किया है।
अंततः इस रचना को मूल्य-भ्रष्ट युग की अभिव्यक्त देने की दिशा में एक नया प्रयोग
माना जाता है।
संदर्भ
1. मोहन राकेश : पैर तले की जमीन पृ. सं. 60
2. मोहन राकेश : पैर तले की जमीन पृ. सं 112
3. मोहन राकेश : पैर तले की जमीन पृ. सं 108
4. डॉ.रीता कुमार : स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी
नाटक – मोहन राकेश के विशेष संदर्थ में से उदृत पृ.सं. 319
5. मोहन राकेश : पैर तले की जमीन पृ.सं 41
6. मोहन राकेश : पैर तले की जमीन पृ.सं 44
7. मोहन राकेश : पैर तले की जमीन पृ.सं 45
8. मोहन राकेश : पैर तले की जमीन पृ.सं. 67
9. मोहन राकेश : पैर तले की जमीन पृ.सं. 80