“सूर्यमुख” और आधुनिक संदर्भ
“सूर्यमुख” और आधुनिक संदर्भ
प्रो.एस.वी.एस.एस.नारायण
राजू
योग्यता, जनवरी - मार्च 2014,
ISSN No. 2348 - 4225
डॉ. लक्ष्मीनारायण लाल रचित “सूर्यमुख” में पौराणिक कथा के माध्यम से
कृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न और कृष्ण की अंतिम पत्नी वेनुरती के प्रेम को दर्शाया
है। जिसमें संपूर्ण कथा प्रद्युम्न और वेनुरती के प्रेम को धर्म और अधर्म के
चक्रव्यूह में उलझी हुई दिखती हैं वही दूसरी ओर युध्द के बाद उत्पन्न कठिन परिस्थितियाँ, निराशापूर्ण जीवन, आम जनता के कष्ट आदि का सफल अंकन “सूर्यमुख” के माध्यम से किया है डॉ.
लक्ष्मीनारायण लाल ने।
युध्द जो
प्राचीन काल से विभिन्न राज्यों,
देशों के बीच होता रहा है और आज भी हो रहा है। यह युध्द देश, धन, समय की बर्बादी तो करता ही है साथ ही जनमानस के शरीर, मन व आत्म की इकाई को तोड़कर रखता
है। युध्द के समय मनुष्य अपनी मनुष्यता को दूर रखकर दानवता की सीमा रेखाओं का परिस्पर्श
करने लगता है। पूर्व युग में धन, नारी
और भूमि के प्रति ही युध्द होते रहते थे, लेकिन आज स्थिति बदल गयी है। आज इन सबके ऊपर जो प्रमुख तत्व युध्द
का कारण बनकर उपस्थिति हुआ है।, वह
है राजनीति। राष्ट्र कवि श्री रामधारी सिंह दिनकर की राय में “युध्द करनेवाले राजनीतिज्ञ होते
हैं, जिनका हृदय उतना ही मलिन होता है, जितने श्वेत सिर के बाल होते हैं
वे देश के किशोरों का वध करवाकर आशवस्त होते हैं। वे सोचते हैं कि नवयुवकों का
रक्त बहा, कोई बात नहीं, देश की लज्जा तो बच गयी।”(1) इसी से स्पष्ट हो जाता है कि
युध्द के मूल में किसी व्यक्ति के खुद का स्वार्थ ही काम करता है जो भी हो, जितनी भी लडाइयाँ आपस में लड़ी
गयी हैं, उनके सारे घाव आम जनता के शरीर पर
ही लगे हैं।
डॉ.
लक्ष्मीनारायण लाल ने पौराणिक नाटक “सूर्यमुख” में
युध्द की विभीषिका को, आम
जनता के शोषण को एक कारण के रुप में चित्रित किया है। युध्द के उपरांत आनेवाली
विभिन्न परिस्थितियों का वर्णन “सूर्यमुख” में हुआ है। महाभारत युध्द जिसमें
स्वयं कृष्ण ने तथा उनकी संपूर्ण सेना ने जो भाग लिया था, उस युध्द के उपरांत द्वारिका में
जो स्थिति उत्पन्न हुई, उसका
वर्णन “सूर्यमुख” में है, जिनमें प्रमुख स्थितियाँ
निम्नलिखित हैं।
आपसी
संघर्ष : महाभारत युध्द में कृष्ण तो
पांडवों के साथ थे तथा अपनी सेना को कौरवों के साथ करके उनके बीच संघर्ष उत्पन्न
किया। “सूर्यमुख” में साम्ब स्वयं इस बात की चर्चा
करते हुए दुर्गापाल से कहता है कि - “उस कृष्ण से जोड़कर मुझे मत पुकारो, मेरा मुख उस कृष्ण से मिलता है, पर वे कृष्ण नहीं, जिन्होंने अपने ही घर और वंश में
फूट के बीज बोये। स्वयं वे महाभारत में पांडवों की ओर, और हमें नारायणी सेना बनाकर
कौरवों की ओर किया।”(2)
द्वारिका में
युध्द के पश्चात कोई राजा का शासन नहीं रहा था। प्रद्युम्न वेनुरती के कारण
द्वारिका छोड़कर चले जाते हैं। कृष्ण का स्वयं का कुछ पता नहीं था। ऐसे समय में
कृष्ण के बाकी पुत्र आपस में ही संघर्ष करने लगते हैं जोकि युध्द का ही एक परिणाम
है जिससे भाईयों में ही संघर्ष उत्पन्न हो गया है। यथा –
“दुर्गपाल :
यदुवंशी आपस में लड़ रहे हैं।
रुक्मिनी : वभ्रु
और साम्ब..... दोनों कृष्ण पुत्र।
दुर्गपाल : पर अब वे अपने को कृष्ण पुत्र
नहीं कहते। वभ्रु अपने को भोजवंशी कहता है और सारे भोजवंशी कहता है और सारे
भोजवंशी उसके दल में साम्ब शिनिवंशी यादवों का नायक।”(3)
इस प्रकार “सूर्यमुख” में डॉ. लक्ष्मीनारायण लाल ने
राजसिंहासन के लिए आपस में ही भाईयों के लड़ते हुए दिखाया है। अर्थात् राजसिंहासन
युध्द का एक कारण परिणाम दोनों ही हो सकता है।
आम जनता का
शोषण
: युध्द चाहे किसी के भी बीच हो उसका विपरीत
परिणाम आम जनता को ही चुकाना पड़ता है। डॉ. लक्ष्मीनारायण लाल रचित “सूर्यमुख” में भी महाभारत युध्द के बाद
द्वारिका की आम जनता शोषित हो रही है। राजा-महाराजा तो महलों में रहते हैं, परंतु आम जनता के पास रहने को घर
तो क्या खाने को रोटी भी नहीं मिल पा रही है और महलों में रहनेवालों को तो खबर ही
नहीं रहती।
“विलोमन : सब राजमहल के चोंचले हैं। प्रजा
तो कीडे-मकोडे हैं। चाहे मरें चाहें जलें – काको है हमारी चिंता? राजा नाचै नंगा, प्रजा ताली दें। बेशरम...
निर्लज्ज... पातकी।”(4)
युध्द में आम जनता ही भाग
लेती है। जिसमें कितनों की जानें जाती हैं। घर-परिवार उनका सब नष्ट हो जाता है। जब
घर का मुखिया ही नहीं रहता तो बाकी परिवार किसके सहारे जी पाता है। आखिर वे भी भूख से तडपकर मर
जाते हैं या मजबूरी में उसे भिखारी या कोई गलत कार्य करना पड़ता है। जैसे कि “सूर्यमुख” की शुरुआत ही भिखारियों की टोली
से हो रही है, जो युध्द के सताते हुए लोग हैं, जो मजबूरी में भिखारी बन गये हैं।
“विलोमन : का रे आहुकी भाई, तैने मोहे नाथ पहचानौ। मो
द्वारिका को सोनार, जे
हैं हारिक, मछुआरा और जे हैं देवक किसान, जे हैं विदुरस्थ शिल्पी, जे हैं, अघुचाकर, और जे हैं पतोला गायक।
देवक : जे के?
विलोमन : जे हैं आहुकी, किसान स्त्री। जाके सब परिवार को
यदुवंशियों ने हत्या कर डाला।”(5)
इस प्र
कार से
“सूर्यमुख” में युध्द के पश्चात आम नागरिक पर
किस प्रकार से शोषण होता है, उसका
सजीव वर्णन डॉ. लक्ष्मीनारायण लाल ने किया है।
मानहानि : किसी भी युध्द में लोगों की जानें
तो चली जाती हैं, साथ
ही लाखों करोडों रुपयों की बर्बादी होती है घर के घर बरबाद हो जाते हैं। लोगों के
खाने-पीने तक के लिए धन नहीं बचता। ऐसे में जनता या तो भीख माँगना शुरु करती है या
स्वयं चोर डाकू बन जाती है और शोषण करने लगती है। “सूर्यमुख” नाटक में व्यासपुत्र जब प्रद्युम्न से मिलने के लिए नागकुंड की
पहाड़ी पर जाता है तब द्वारिका की स्थिति के बारे में वर्णन करता है, वह बहुत हृदयविदारक है, यथा –
“व्यासपुत्र : दक्षिण दिशा में समुद्र बढ़ता चला
आ रहा है, पर उसे रोकने का कोई प्रयत्न नहीं, नगर में रोगियों, गुंडों और भिखारियों की संख्या
इतनी बढ गयी है कि राह चलना कठिन है। वस्तुओं के दाम इतने बढ़ गये हैं कि मनुष्य
अपने को भी बेचकर भी उन्हें नहीं खरीदा पाता। राजा उग्रसेन मृत्यु शैय्या पर पड़े
हैं, वभ्रु और साम्ब सिंहासन के लिए
लड़ रहे हैं। सारी नारायण सेना अलग-अलग वंशों, दलों,
शिविरों में बाँटकर हिंसा, लूट
और व्यभिचारों में डूब हुए हैं। निश्चय ही यह महाकाल का कोप है लोगों का विश्वास
है कि इसके मूल में तुम्हारा वही पाप कर्म है...।”(6)
इस प्रकार
डॉ. लक्ष्मीनारायण लाल ने “सूर्यमुख” में बताया है कि युध्द के पश्चात
द्वारिका में आम नागरिक कैसे मुसीबतों का सामना कर रहा है, जब कि इस जनता का युध्द से कोई
वास्ता नहीं रहता है,
परंतु फिर भी इसे सबको भुगतना पड़ता है। यह भी युध्द के उपरांत होनेवाली एक प्रमुख
समस्या है, जो युध्द के कारण से उत्पन्न होती
है।
प्रकृति
का कोप : किसी भी युध्द के उपरांत जहाँ
साधारण आम जनता को परेशानी का सामना तो करना पड़ता ही है अक्सर ऐसे में प्रकृति भी
अपना कोप जरुर दिखाती है। अक्सर कभी बाढ़ आ जाती है तो कभी सूखा पड़ जाता है, इस प्रकार किसी-न-किसी बहाने से
प्रकृति अपना कोप जरुर प्रकट करती है। “सूर्यमुख” में
भी डॉ लक्ष्मीनारायण लाल ने प्रकृति के प्रकोप की भी चर्चा की है। द्वारिका में
समुद्र बेवजह द्वारिका की तरफ बढ़ता आ रही है, जिसमें द्वारिका के डूबने के आसार हो रहा हैं। यह समुद्र प्रकृति
का ही परिचायक है, जो
अपना क्रोध प्रकट कर रही है।
“दुर्गापाल : इस नगर में मेरे भी तीन बच्चे मरे
हैं। काल समुद्र मेरी पत्नी को भी निगल गया है। पर मेरे जीने का अर्थ इस मृत्यु से
बड़ा हो जाता है। मैं उनकी मौत से जितना ही मरा हूँ, वे मेरे इस बाकी जीवन से उतने ही जीवित रहेंगे, समुद्र भयानक है पर उसमें जल है।”(7)
नारियों का
शोषण : किसी भी युध्द के पश्चात सामान्य
जनता का तो शोषण होता ही है,
परंतु इनमें जिनपर सबसे अधिक शोषण किया जाता है, वह है नारी। नारी पर वैसे तो अत्याचार होते ही है, परंतु ऐसी स्थिति में उनपर
अत्याचार विशेष रुप से होता है। अक्सर युध्द के पश्चात घर के मुखिया युध्द में
मारा जाता है और सारी जिम्मेदारी उसकी पत्नी पर आ जाती है। पूरा घर का खर्च, बच्चों की जिम्मेदारी उसी पर रहती
है. उसपर लोगों का अत्याचार नगर की बुरी हालत बाजारों में बढ़ते भाव आदि द्वारा
उसपर शोषण होता है? उसका
घर से निकलना मुश्किल हो जाता है। उसको दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है, जिसके कारण वह उन लोगों के द्वारा
शोषित होती है।
आम नारी ही
नहीं अपितु महलों में रहनेवाली नारियों का भी शोषण ऐसी स्थिति में होता है। “सूर्यमुख” में कृष्ण की सभी विधवाओं के साथ
शोषण होता है। “सूर्यमुख” में डॉ.लक्ष्मीनारायण लाल ने इस
प्रकार नारी के शोषण के बारे में चर्चा भी की है जो कि हमेशा युध्द के उपरांत होती
है।
“सूर्यमुख” हिंदी के उन आम पौराणिक ऐतिहासिक
नाटकों से पृथक है,
जिसमें पुराण या इतिहास का नाटकीय अनुवाद प्रस्तुत किया जाता है। वे हमें उस काल
में जाने का अहसास देते हैं। जबकि सूर्यमुख स्वतंत्र भारत की विभीषिकाओं से हमारा
साक्षात्कार करता है। यहाँ अतीत के माध्यम है, वर्तमान को प्रतिबिंब करने के लिए अतीत को वर्तमान के सम्मुख लाया
गया एक दर्पण मात्र है। “सूर्यमुख” है प्रद्युम्न है और भविष्य।
भविष्य नयी पीढ़ी के हाथ में है तभी तो नाटक का अंत आहुकी के नवजात शिशु की महत्व
स्थापना से होता है।
“रुक्मिनी : सुनो.... मैं तुझे इसी शिशु से
जीवित रखूँगी। जिस द्वारिका में तुझे जन्मा था, इसे अंक में लिये उसी नगर में वापस जाऊँगी – द्वारिका की रचना
जिसने की थी, उसका भी जन्मा इसी तरह हुआ था।”(8)
संक्षेप में
सूर्यमुख नाटक में डॉ.लक्ष्मीनारायण लाल ने युध्द के उपरांत छूट गयी विभीषिकाओं का
सफल अंकन किया है। कृष्ण की मृत्यु के पश्चात उसकी नारायणी सेना राज्य-लिप्सा के
कारण युध्द में डूबकर विभिन्न खंडों में बंट जाना, हिंसा, लूट तथा व्यभिचार ही प्रमुख होना तथा युध्द के कारण व्यक्तियों की
आजीविकाएँ छीनकर उन्हें भिखारी बनाना ... यही तो युध्द के घातक परिणाम है। युध्द
भूमि में सभी संबंध खोखले हो जाते हैं जैसा कि सूर्यमुख में कहा गया है – “शोभा और सुंदरता युध्द के मैदान
में जब इन शब्दों की धज्जियाँ उड़ाती हैं, कराह और चीख से जब शून्य भरने लगता है तब केवल एक ही चीज सामने
आती है, एक संबंधहीन ठंड़ा संसार।”(9)
इस प्रकार
डॉ. लक्ष्मीनारायण लाल ने सूर्यमुख में पौराणिक कथा के माध्यम से युध्द के
दुष्परिणामों तथा अन्य ज्वलंत समस्याओं का चित्रण यथार्थता के धरातल पर सफलतापूर्वक
किया है।
संदर्भ
ग्रंथ
1.
सुशील कुमार सिंह – सिंहासन खाली है – पृ.सं – 28
2.
डॉ. लक्ष्मीनारायण लाल – सूर्यमुख – पृ.सं – 31
3.
डॉ. लक्ष्मीनारायण लाल – सूर्यमुख – पृ.सं – 26
4.
डॉ. लक्ष्मीनारायण लाल – सूर्यमुख – पृ.सं – 20
5.
डॉ. लक्ष्मीनारायण लाल – सूर्यमुख – पृ.सं – 21
6.
डॉ. लक्ष्मीनारायण लाल – सूर्यमुख – पृ.सं – 40
7.
डॉ. लक्ष्मीनारायण लाल – सूर्यमुख – पृ.सं – 97
8.
डॉ. लक्ष्मीनारायण लाल – सूर्यमुख – पृ.सं – 147
9.
डॉ. लक्ष्मीनारायण लाल – सूर्यमुख – पृ.सं – 148