गंगाशरण सिंह पुरस्कार विजेता प्रो.एस.ए.सूर्यनारायण वर्मा
गंगाशरण सिंह पुरस्कार विजेता
प्रो.एस.ए.सूर्यनारायण वर्मा
प्रो. एस.वी.एस.एस.नारायण राजू
संकल्य, अक्तूबर-दिसंबर
2013,
ISSN No. 2277-9264
हिंदीतर
भाषी हिंदी लेखकों ने राष्ट्रीय विचारों से ओतप्रोत होकर हिंदी भाषा और साहित्य के
अध्ययन में रुचि दिखाई है और इनकी समृद्धि में पर्याप्त योगदान दिया है । दक्षिण
भारत में जन्म लेकर हिंदी के नैसर्गिक वातावरण से दूर रहकर हिंदी साहित्य-सर्जना
की ऐकांतिक साधना में तल्लीन दक्षिण के हिंदी लेखकों का योगदान विशेष रुप से
उल्लेखनीय है । मौलिक लेखन, अनुवाद, समीक्षा ओर हिंदी पत्रकारिता के क्षेत्र में
आंध्र प्रदेश के जिन लेखकों ने अपनी
कृतियों से हिंदी भाषा और साहित्य की श्रीवृद्ध के लिए महत्वपूर्ण कार्य
संपन्न किया है उनमें प्रो.एस.ए,सूर्यनारयण वर्मा का नाम विशेष आदर के साथ लिया जा
सकता है । कर्म व संवेदन तथा दायित्व व अनुशासन के अदभुत समन्वय के कारण इनका
व्यक्तितत्व विशिष्ट रहा । इनके व्यक्तित्व में सपनों को संघर्ष –चेतना की तपस में
साकारित करने का साहस परिलक्षित होता है । अनुसंधान और अनुवाद के क्षेत्र में अपने
कर्त्तव्यों एवं दायित्वों को इन्होंने ईमानदारी से समझा और निष्ठापूर्वक उनका
निर्वाह किया ।
‘छायावादी कविता और भाव कविता में प्रकृति चित्रण’ प्रो. वर्मा जी का शोध विषय रहा । सन् 1979 से 1982 तक महाराज कलाशाला,
विजयनगरम में हिंदी प्राध्यापक के रुप में इन्होंने काम किया । सन् 1983 से 1988
तक विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के रिसर्च असोसिएट के रुप में आंध्र विश्वविद्यालय
के हिंदी विभाग में अनुसंधान कार्य करने का इन्हें सुअवसर मिला है । इस अवधि में द्विवेदी युगीन
निबंध साहित्य और हिंदी और तेलुगु के स्वच्छंदतावादी काव्य पर इनके ग्रंथ इस अवधि
में प्रकाशित हुए । सन् 1993 में वैज्ञानिक (प्रोफेसर) के रुप में इन्हें पदोन्नति
मिली । तब से ये प्रोफेसर की श्रेणी में आंध्र विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में
अध्यापन, अनुसंधान, निर्देशन, शोध परियोजनओं का संचालन, तेलुगु से हिंदी में
अनुवाद-कार्य, राजंभाषा के रुप में हिंदी का प्रचार-प्रसार, हिंदी पत्रिका का
संपादन, राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में प्रपत्र-वाचन, आंध्र प्रदेश के
उत्तर तटवर्ति जिलों में हिंदी का प्रचार-प्रसार आदि कार्यक्रमों में सक्रिय भाग
लेकर अपनी उपलब्धियों से राष्ट्र्वाणी को संबोधित करते रहे हैं । सन् 1988 से2000
तक अनुदान आयोग की बृहद शोध परियोजना का इन्होंवे सफलतापूर्वक सचालन किया है ।
राष्ट्रीय एकता, धर्म निरपेक्षता एवं भारतीयता के विशेष संदर्भ में हिंदी और
तेलुगु की आधुनिक कविता का तुलनात्मक अध्ययन इस परियोजना का विषय रहा है । आपके
द्वारा प्रकाशित समीक्षात्मक कृतियाँ, प्रतिनिधि रचनाओं का अनुवाद, कई पुस्तकों के
भूमिका-लेखन और निर्देशन के क्षेत्र में आपकी उपलब्धियों का लंबा अनुक्रम है जो
आपके गुण एवं प्रशंसाओं से भरा हुआ है । यदि मैं समुद्र को स्याही बनाऊँ तो भी आपके
गुणों का बयान करने में असमर्थ हूँ । अब तक प्रो.वर्मो के 15 समीक्षात्मक ग्रंथ
और 5 अनूदित ग्रंथ प्रकाशित हुए हैं ।
छायावदी कविता में युग-चेतना, द्विवेदी युगीन निबंध-साहित्य में आधुनिक विचारधारा,
नई कविता की काव्यसंवेदना, नई कविताःपुराखयानों की समकालीनता, हिंदी और तेलुगु की
आधुनिक कविता में राष्ट्रीयता, स्वातंत्र्योत्तर हिंदी कविता का वस्तुगत अनुशीलन,
साठोत्तर हिंदी और तेलुगु कविता में सामाजिक क्राँति, प्रेरक वाक्य, आधुनिक तेलुगु
नाटक, पाश्चात्य रंग-दर्शन, आधुनिक हिंदी साहित्यःमनन और मूल्यांकन, आधुनिक तेलुगु
साहित्यःविविध परिदृश्य, कविता-कुसुम, अद्वैतवादःएक परिशीलन, सितायन, तेलुगु भाषा
का इतिहास, जब मैंने तिरुपति बालाजी को देखा, श्री सत्य साई सत्संवाद, दैनंदिन जीवन
में मान चित्रों का उपयोग, लर्निंग हिंदी आदि ग्रंथ प्रो. वर्मा की विद्वत्ता एवं
अनवरत साधना के ज्वलंत प्रमाण हैं । इमके लगभग 215 लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में
प्रकाशित हुए हैं । आपका कृतित्व ही आपके व्यक्तितव का परिचायक है । स्वनामधन्य
प्रो वर्मा जी का व्यक्तित्व बहुमुखी प्रतिभा से अलंकृत है । आपमें विद्या, प्रतिभा,
साधना, लक्ष्योन्मुखता और सृजन का अदभुत समन्वय है ।
मेरे सामने प्रो. वर्मा जी की कितनी ही पुस्तकें
हैं, इन सबकों मैंने बड़ी तन्मयता से पढ़ा है । समीक्षात्मक
रचनाओं में वे पूर्वाग्रहों से मुक्त रहकर तथ्यों का तटस्थ विश्लेषण ईमानदारी के
साथ करते हैं । हिंदी और तेलुगु भाषाओं पर समान अधिकार होने के कारण तुलनात्मक
अध्ययन के क्षेत्र में इनका कार्य महत्वपूर्ण सिद्ध हुआ है । छायावादी कविता और
भाव कविता में प्रकृति चित्रण शीर्षक शोध-प्रबंध प्रकाशित हुआ है, जिसमें आलंबन,
उद्दीपन, मानवीकरण आदि रुपों में प्रकृति का वर्णन करने, परमतत्व के आभास को पाने,
संदेशवाहक के रुप में प्रकृति के अंग-प्रत्यंगों को चित्रित करने में हिंदी और तेलुगु
के स्वत्छंदतावादी काव्यकारों की कुशलता का
निरुपण किया गया है । ‘छायावादी कविता और भाव कविता में युग-चेतना’शीर्षक
को और पुस्तक में युग-चेतना की अभिव्यक्ति की दृष्टि से आलोच्य कविताओं के
वैशिष्ट्य को उजागर करने का सफल प्रयास परिलक्षित हुआ है । युगीन आर्थिक, सामाजिक,
राजनीतिक और सांस्कृतिक परिवेश के प्रति अपनी प्रतिक्रिया को व्यक्त करते हुए
द्विवेदी युगीन निबंधकारों ने जो विचार प्रकट किये, उनकी प्रासंगिकता के साथ-साथ
निबंध-लेखन की दृष्टि से इस युग के निबंधकारों की उपलब्धियों को ‘द्विवेदी युगीन निबंध साहीत्य में आधुनिक विचारधारा’
शीर्षक ग्रंथ में मूल्यांकित किया गया है । ‘हिंदी और तेलुगु
कविता में राष्ट्रीयता’ शीर्षक ग्रंथ में प्रो.वर्मा ने
संस्कृति-प्रेम और देशभक्ति, प्रगतिशील विरासत के प्रति श्रद्धा, पतनोन्मुख
जीवन-मूल्यों का निरुपण, राष्ट्रीय जागरण की प्रबल आकांक्षा की अभिव्यक्ति, नेताओं की त्यागनिरति एवं कर्म-निष्ठा की प्रशंसा आदि शीर्षकों के
अंतर्गत हिंदी और तेलुगु की आधुनिक कविता का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया है । ‘स्वातंत्र्योत्तर हिंदी कविताःवस्तुगत परिशीलन’
शीर्षक ग्रंथ में समीक्षक प्रो.वर्मा ने इस युग की कविता की वस्तु-चेतना के स्वरुप
को स्पष्ट करते हुए विचार-दर्शन और संस्कृति के विभिन्न पक्षों की अभिव्यक्ति की
दृष्टि से इस अवधि की हिंदी कविता का समग्र अनुशीलम प्रस्तुत किया है । ‘साठोत्तर हिंदी और तेलुगु कविता में सामाजिक क्रांति’ शीर्षक ग्रथं में प्रो.वर्मा ने सामाजिक चेतना, राजनीतिक विद्रोह का
समर्थन, वर्ण-व्यवस्था और सांप्रदायिकता का विरोध, नारी
स्वतंत्रता का समर्थन आदि कई शीर्षकों के अंतर्गत इस युग की हिंदी और तेलुगु कविता
का तुलनात्मक अनुशीलन प्रस्तुत किया है । ‘नयी कविताः पुराख्यानों
की प्रासंगिकता शीर्षक पुस्तक में प्रो.वर्मो ने मिथकीय कथा-वस्तु को लेकर रचे गए
नयी कविता के प्रबंध काव्यों में चर्चित
युगीन समस्यओं का समग्र विश्लेषण प्रस्तुत
किया है । स्वातंत्र्योत्तर हिंदी नाटकों की उपलब्धियों का वस्तुगत वैविघ्य और
विचारतत्व की दृष्टि से ‘स्वातंत्र्योत्तर हिंदी नाटकः वस्तुगत
अध्ययन, शीर्षक ग्रंथ में मूल्यांकन किया गया है । ‘ साठोत्तर तेलुगु नाटक व रंगमंचःपाश्चात्य प्रभाव और प्रयोग शीर्षक ग्रंथ
में सातवें, आठवें और नवें दशक के तेलुगु नाटकों का समग्र परिचय देते हुए वीथि
नाटक, असंगत नाटक, प्रतीकात्मक नाटक, अभिव्यंजनावादी नाटक, महाकाव्यात्मक रंगमंच,
सिद्धांत-प्रचार-अभियान के नाटक, समीक्षा नाटक, अस्तित्ववादी नाटक, त्रि-आयामी
नाटक, मूकाभिनयप्रधान माटक, परिवेशगत नाटक, वृत्त रुपक, निश्चल अभिनयप्रधान नाटक.
छाया नाटक, नीरव दृश्यांकन, मनोविश्लेषणात्मक नाटक आदि रुपों में इस युग में रचे
गये तेलुगु नाटकों पर पाश्चात्य प्रभाव को दर्शाने की चेष्टा हुई है । प्रो,वर्मा
के निबंधों को ,हिंदी साहित्यःमनन और मूल्यांकन, और तेलुगु साहित्यः विविध परिदृश्च
आदि ग्रथों के रुप में अमन प्रकाशन, कानपुर ने प्रकाशित किया है। प्रो.वर्मो जी के
निबंध-लेखन के पीछे साहित्य, संस्कृति और इतहास से संबंधित प्रश्नों के प्रति इनकी
गहरी चिंता निहित है । ऊँची चिंतनशीलता अनके व्यापक अनुभवों और गहन अध्ययन का फल
है । समीक्षा-लेखन और भूमिका-लेखन के क्षेत्र में भी इनकी उपलब्धयाँ विशिष्ट रही
है। अनुवादक अपनी योग्यता, ज्ञान व अभ्यास के कारण अच्छा अनुवादक बन सकता है । अनुवाद
के मथितार्थ के अभिज्ञता, शीर्षक लेख मे प्रो. वर्मा जी ने अनुवाद कला की
विशिष्टता को स्पष्ट किया है । एक अनुवादक के रुप में इनका मन कला के गुणें से
ओतप्रोत है तथा मूलभाषा व लक्ष्य भाषा पर इनका पूर्ण अधिकार है । भारत के पूर्व
प्रधानमंत्री श्री पी.वी. नरसिंहाराव के अपर सचिव और भारतीय प्रशासनिक सेवा के वरिष्ठ
अधिकारी ‘राष्ट्र रत्न’ श्री पी.वी.आर.
के. प्रसाद ने तिरुमला तिरुपति देवस्थानम के कार्यकारी अधिकारी के रुप में अपने
कार्यकाल के दौरान अपने तथा दूसरों के अनुभवों कों, सर्वसंभवाम (नाहं कर्ता,
हरिःकर्त्ता) शीर्षक से स्वाति साम्ताहिक तेलुगु पत्रिका में धारावाहिक के रुप में
प्रकाशित किया । तदनंतर सर्वसंभवाम् शीर्षक से यह रचना पुस्तक के रुप में
प्रकाशित हुई । तेलुगु पाठकों ने इस रचना
का भव्य स्वागत किया है । इसे प्रो. एस ए. सूर्यनारायण वर्मा जी ने जब मैनें तिरुपति
बालाजी को देखा शीर्षक ग्रंथ के रुप में हिंदी में रुपांतरित किया । इस रचना में
अलौकिक अनुभूति संपन्न रचनाकार के अनुभव तीस अध्यायों के अंतर्गत परोक्षतःश्री
बालाजी की महिमाओं का नर्णन करने वाले और पाठकों को अलौकिक आनंद देने वाले हैं ।
इस अनूदित रचना का प्रकाशन ज्ञान पब्लिशिंग हाऊस.23 मैन अंसारी रोड, दरियागंज, नई
दिल्ली की ओर से हुआ है । तिरुमला में कलियुग दैव के रुप में प्रतिष्ठित बालाजी (श्री
वेंकटेश्वर स्वामी) की लीलाओं को अनेक अद्भुत घटनाओं में अनुभूत कर भक्त लोग परवश
होते हैं । रचनाकार ने अपने जीवन की कुछ ऐसी महत्वपूर्ण घटनाओं का विवरण दिया है,
जो असंभव को संभव बनानेवाली ईश्वरीय शक्ति के स्पष्ट प्रमाण देती हैं और
विश्वात्मा के प्रति भक्तजनों की आस्था को सुदृढ़ बना देती है। इस रचना का बोल-चाल
की भाषा में लिखा गया है । यज्ञ को समाप्त कराने में, ध्वजस्तंभ को प्रतिष्ठत करने
में तथा दास साहित्य परियोजना और अन्नमाचार्य परियोजना को लागू करने में लेखक अपनी
सफलता का श्रेय परमात्मा श्रीनिवास को ही देते हैं। इन अध्यायों में भावना के
धरातल पर अनुभूतियों को अभिव्यक्त किया है । इन अध्यायों का अनुवाद करते समय भावनाओं
की तीव्रतम अभिव्यक्ति में सहायक तत्व के रुप में भाषा का प्रयोग करने को
प्राथमिकता दी गई है ।
‘सीतायन’ प्रों वर्मा जी की बहुचर्चित
अनूदित रचना है । प्रो.वर्मा जी ने कहा मैने इसे इसलिए हिंदी में रूपांतरित किया
कि इसमें सीता एक साधारण नारी के रुप में नहीं, देवी स्वरुप प्रतीत हीती है ।
ग्रंथ के अनुवाद को पूरा करते समय मुझे अहसास हुआ कि नारी को ढोल, गँवार, शूद्र
एवं पशु की श्रेणी में रखना उसका अपमान करना है । उसका चरित्र कई गुना उच्चकोटि का
है । श्री वेलुवोलु बसवपुन्नय्या ने मानवीय सदाशयता, सामाजिक प्रतिबद्धता और
मूल्य-दृष्टि को अपनी कृतियों द्वारा स्पष्ट कर वर्तमान तेलुगु साहित्य संसार में
अपना विशिष्ट स्थान बनाया है । सीतायनम उनका नवीनतम तेलुगु उपम्यास है, जिसमें
बसनपुन्नय्या ने, राष्ट्र-धर्म और मानव - धर्म के प्रश्न के नेपथ्य में दशरथ पुत्र
श्रीराम ने अपनी धर्म पत्नी को जो दंड दिए उनकी समीक्षा की है । प्रो.वर्मा ने इस
रचना हिंदी रुपांतर को ‘सीतायन’ शीर्षक
से प्रस्तुत किया है. इसका प्रकाशन अमन प्रकाशन, कानपुर की और से हुआ है। इस रचना
में सीता के चरित्र के कई आयामों का उद्घाटन हुआ है । महर्षि जनक की पुत्री,
भूसुता, वीर्य शुल्का, अयोनिजा, दशरथ की बहू और मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम की
धर्मपत्ती सीता कारणजन्मा है । उसका चरित्र दिव्य है । इस उपन्यास में राम-कथा के
प्रसंगों की मौलिकता को अक्षुण्ण बनाये रखते हुए बसवपुन्नय्या जी ने चरित्र को
विकास के नये आयाम दिए । संस्कृतनिष्ठ शब्दों की बहुलता, कई संदर्भें में प्रकृति
सौंदर्य का विस्तारपूर्वक वर्णन, लंका नगरी की शोभा का विस्तृत वर्णन,
नारी-सौंदर्य का नख-शिख वर्णन, लंबे-लंबे कथनों द्वारा कथा-प्रसंगों को मार्मिक
बनाने का प्रयास, नारी-अस्तित्व और उसकी स्वतंत्रता से जुडे कई प्रश्नों को उठाने
के संदर्भ में दीर्घ संवादों का प्रयोग, विरह-वेदना की अभिव्यक्ति के अवसर पर
भावनाओं की तीव्रता को प्राथमिकता देना, युद्ध-वर्णन के प्रसंगों में लेखक की ओर से
लंबी पृष्ठभूमि बाँधने का प्रयास, भारतीय संस्कृति व धार्मिक आस्थओं के नेपथ्य में
विभिन्न पात्रों की मनोवृत्तियों और क्रिया-प्रतिक्रियाओं का अंकन करने की अद्भुत
क्षमता आदि के काराण यह उपन्यास अत्यंत लोकप्रिय बन पड़ा है। सीता-कथा की प्रशंसा
करते हुए उस के चरित्र के अनछुए पक्षों का
अंकन करने में मूल लेखक ने जिन प्रसंगों की योजना की है, उनका हिंदी रुपांतर प्रस्तुत
करने के संदर्भ में प्रो.वर्मा ने यथासंभव मूल कथ्य और संवेदना को यथावत् रुप में
अनूदित रचना में संप्रेषणीय बनाने का प्रयास किया है।
आंध्र विश्वविद्यालय के तेलुगु विभाग के
आचार्थ वेलमल सिम्मन्ना ने तेलुगु भाषा चरित्र ग्रंथ प्रकाशित किया । तेलुगु भाषा
का इतिहास शीर्षक ग्रंथ के रुप में584 पृष्ठों में प्रो. वर्मा जी ने इसे हिंदी
में रुपांतरित किया । इसका प्रकाशन आध्र प्रदेश हिंदी अकादमी, हैदराबद की ओर से
हुआ है । 32 अध्यायों में यह प्रस्तुत हुआ है । तेलुगु भाषा के इतिहास को इस रचना में सरल शैली में स्पष्ट किया गया है ।
इण्डो-यूरोपियन भाषा-परिवार का परिचय देते हुए इण्डो-आर्यन भाषा-परिवार की विभिन्न
भाषाओं का समग्र अनुशीलन किया है। भारतीय भाषाएँ शीर्षक अध्याय में विभिन्न भारतीय
भाषाओं का परिचय देते हुए उनके वर्गीकरण को प्रस्तुत किया है । प्राचीन लिपियों का
परिचय देते हुए तेलुगु लिपि के सामान्य लक्षणों और तेलुगु भाषा के इतिहासकारों के
अध्ययनों की उपलब्धियों पर प्रकाश डाला गया है । इस महत्वपूर्ण ग्रंथ को हिंदी में
रुपांतरित कर प्रो.सूर्यनारायण वर्मा जी ने तेलुगु भाषा के समृद्ध इतिहास से हिंदी
पाठकों को अवगत कराने का स्तुत्य प्रयास किया है । समीक्षा,निबंध, अनुवाद, संपादन
आदि क्षेत्रों से प्रो.वर्मा जी पूरी तरह से जुडे रहे हैं । इनके साथ ही हिंदी तथा
दक्षिण की भाषाओं और उनके साहित्य को भी निकट लाने की वे निरंतर कोशिश कर रहे हैं।
यही काराण है कि वे हिंदी तथा हिंदीतर सभी मंचों पर सम्मानभाजन बने है ।
जीवन में कई रुकावटें, कठिनाइयाँ,
बाधाएँ और समस्याएँ ऐसी भी आती हैं जिनसे डरकर साधारण व्यक्ति चुनौतियों से मुँह
फेर लेता है. लेकिन प्रो.वर्मा चुनौती से पंजे मिलाते है, भीड का हिस्स न बनकर वे
अपने अलग अस्तित्व को प्रकट करना चाहते हैं । 70 से 80 प्रतिशत विकलांगता के
बावजूद प्रो.वर्मा ने साहित्य-सृजन, अनुवाद, अध्यापन और अनुसंधान के क्षेत्र में
अपनी सक्रियता एवं क्षमता का परिचय दिया है । इनके निदेशन में अब तक 30
शोधार्थियों को पीएच.डी., उपाधियाँ मिलीं और 10 शोधार्थियों को एम.फिल., की
उपाधियाँ । इन पंक्तियों के लेखक का भी यह परम सौभाग्य रहा कि प्रो. वर्मा जी के
निर्देशन में पीएच.डी., उपाधि के लिए शोध करने का मुझे अवसर प्राप्त हुआ है ।
विशाखा हिंदी परिषद के उपाधयक्ष एवं विशाखा भारती के संपादक के रुप में प्रो.वर्मा
ने व्यापक तौर पर हिंदी का प्रचार-प्रसार किया और कई युवा प्रतिभाओं को प्रोत्साहन
दिया । कई राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय संगेष्ठियों में इन्होंने भाग लिया । योजना
तथा कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय और रक्षा मंत्रालय, भारत सरकार नई दिल्ली की
हिंदी सलाहकार समितियों के सदस्य के रुप में प्रो.वर्मा ने राजभाषा के रुप में
हिंदी के प्रयोग को बढ़ावा देने में सक्रिय भूमिका निभाई है । सलाहकार समितियो के
सदस्य के रुप में हिंदी को राजभाषा के रुप में सार्थक व सिद्ध करने में आपका
निष्ठापूर्ण पुरुषार्थ अन्य लोगों को भी निरंतर अनुप्रेरित कर रहा है । तुलनात्मक
अध्ययन एवं अनुसंधान के क्षेत्र में इनकी उपलब्धियाँ राष्ट्रीय महत्व की हैं ।
अपनी साहित्य-साधना द्वारा उत्तर और दक्षिण भारत के बीच सांस्कृतिक संवाद को
गतिशील बनाने में इन्हें आशातीत सफलता मिली है । प्रो.वर्मा ने कहा था ‘मेरा जीवन दूसरों के लिए है ।
जो कार्य भगवान ने मुझे सौंपा है, उसे मैं बोझ नहीं, आशीर्वाद समझकर अपनी अंतिम साँस तक पूरा करुँगा ।‘अध्यापन, अनुसंधान, शोध-निर्देशन, अनुवाद, हिंदी का प्रचार-प्रसार और
संपादन के क्षेत्र में प्रो. सूर्यनारायण वर्मा जी की उपलबिधयों को दृष्टि में
रखकर केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा ने वर्ष 2010 के लिए ‘गंगाशरण सिंह पुरस्कार’ देने की घोषणा की है । शीघ्र
ही माननीय राष्ट्रति भवन में आयोजित होनेवाले सम्मान समारोह में यह सम्मान प्रदान
किया जाएगा । इस पुरस्कार के अंतर्गत सम्मान स्वरुप प्रो.वर्मा जी को रु.1,00,000/-,अंगवस्त्र
तथा प्रशस्ति पत्र प्रदान किया जाएगा । प्रो. वर्मा जी को जो प्रतिष्ठा मिली है वह
अनायास नहीं है । उसकी पृष्ठभूमि में लौकिक सुखों का परित्याग है, अहर्निश अध्ययन
एवं लेखन है । इनकी सिद्धि एवं प्रसिद्धि की पृष्ठभूमि में इनकी दीर्घ कालीन अविचल
साधना है । आपका शेष जीवन स्वस्थ-सुंदर एवं ओज-उत्साहपूर्ण हो तथा आप जीवन को
भरपूर ढ़ग जी सकें, यही मैं सर्वशक्तिमान ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ ।