नया घर
नया घर
तेलुगु मूल – मद्दूरी नगेश बाबू
हिंदी अनुसृजन – प्रो. एस.वी.एस.एस.नारायण राजू
स्वतंत्र
वार्त्ता, 25-08-2001
आपके लिए
और आपकी
संतानों
के लिए हैं जिस प्रकार,
उस
प्रकार मेरे लिए जब गाँव ही नहीं,
तो घर
कहाँ?
एक यायवर
हूँ मैं
जो भी टिक सकता
एक जगह
दो साल से अधिक,
दो साल
भी कहाँ?
दो
महीनों में तबादला होने पर
बर्तन
भाण्डे समेटे, पेट पकड़े
गाँव-गाँव घूमने वाला एक मसीहा हूँ मैं
असल में
मैं कौन हूँ?
एक
सरकारी नौकर।
सदियों
की गुलामी से
कुछ दिन
पहले ही
तबादला
हुआ है
मेरी
नौकरी रुपी गुलामी में।
जीने के
लिए नौकरी के सिवा
कुछ नहीं
मेरे पास।
हर फल
भयभीत हो कांपता हूँ में
कहीं
नौकरी न चली जाए।
एक नीच
जात नौकर हूँ मैं।
गाँव
बदलने पर नौकरी तो नहीं बदलती
घर बदलना
तो जरुरी है न?
सच कहूँ... घर बदलने से
नौकरा
पाना ही आसान लगा मुझे।
किसी
भिखारी की तरह,
चंदा
मांगने वाले की तरह
किसी
ब्याई हुई कुतिया की तरह
दर-दर भटकते हुए मुझे
किराया
पर न मिल सका एक भी घर
ऐसा हर
घर लगा मुझे
सीमंटे
के मकबरे जैसा।
हाय! क्या पाप किया था मैंने,
कि सूंघ
लिया हर बार मेरे दलित गंध को
तिलकायित
भालवालें दरवाजों ने
साफ
सुथरी पोशाक के बावजूद।
दूसरे
कुछ कुत्तों ने जो सूंघ तो नहीं पाएं
खानदान
का नाम पूछकर
या कोई
जादू करके
कह
दिया माफ करो!
मांसहारी
को घर नहीं देंगे।
गिराने
ही होंगे ये सारे घर
एक कुदाल
लेकर।
जिसके
पास भी हो गए चार पैसे
उसी ने
खड़ी कर ली चार दिवारें,
पैदा किए
हैं इस श्मशान में
इतने
गाँव और कस्बे
ईंट और
चूने के रंग के फर्क ने।
जिस समय
मेरी खोपड़ी
पर
बरसाती है अपमान की आग
मेरी
शक्ति की ईंटों,
और मेरे
खून के चूने से
सजे हुए
थे घर
उस समय
देते हैं औरों को
आसरा और
छाया।
सिर्फ
मेरा ही प्रवेश
वर्जित
है इन घरों में।
और कितने
दिन चुप रहूं,
आप ही
बताइए।
इसीलिए
अब बना लिया है
मैंने अपना पेशा
सब घरों
को तोड़ना।
कोई फर्क
न रहे अब
सामिष और
निरामिष
घरों में
इस देश में
मिला रहा
हूं सारे घरों को खाक में।
नए विशाल
घर उगेंगे
इन भग्न
घरों के खण्डहरों से
जिन में
रह सकेंगे सब जन एक साथ।
तब नहीं
लगेगा मुझे
या मेरे
भाईयों को
घर बदलना
भारतीय
अंग्रेजों पर आक्रमण जैसा।