नाट्यानुभूति से पूर्ण काव्यात्मक और पात्रानुकूल भाषा : आषाढ़ का एक दिन







नाट्यानुभूति से पूर्ण काव्यात्मक और पात्रानुकूल भाषा : आषाढ़ का एक दिन

प्रो.एस.वी.एस.एस. नारायण राजू  

        स्त्रवंति, जून 2006  

                                                                                  
         साहित्य  की अन्य विधाओं की तुलना में नाटक में भाषा का महत्व अधिक होता हैं क्यों कि नाटक मंच के माध्यम से सजीव रुप धारण करता है। नाटकीय शब्दों के प्रयोग की दृष्टि से नाटककार का दायित्व बढ़ जाता है। विभिन्न व्यक्तियों द्वारा बोले जाने पर एक ही शब्द नाटक में अनेक रुप धारण करता है और नाटकीय शब्द की यह विशिष्टता साहित्य की अन्य गद्य विधाओं के लिखित शब्दों से उसे पृथक करती है। नाटकीय शब्दों के प्रयोग के संबंध में “Looking around as a playwright” शीर्षक निबंध का कुछ अंश द्रष्टव्य है --- “The words in a play. Unlike those in a novel or a short story, have a double duty to perform. They are both to be read as well as uttered ; and  until the playwright has heard them uttered a number of times, by a number of persons giving their own different intonations to them, he can not be sure of their choice, their placing the above all, of their being needed there at all. Some times the words that are most eloquent in writing, seem redundant I speech as the spoken word has an eloquence of its own, far different from the literary flair of the the written word. Again the rhythm pattern of the spoken word too is often different. Hence playwriting, even at the level of pure dialogue, would entail a combined activity of the playwright and a number of others who could speak his words for him and help him to check their suitability for the double role assigned to them.”(1)
नाटक की भाषा भी काफी समय तक आलोचक वर्ग में विवाद का विषय बनी रही। इस संदर्भ में सबसे बडी आपत्ति इसकी संस्कृतनिष्ठ शब्दावली को लेकर थी। मोहन राकेश के अनुसार -  भाषा की यह सीमा कुछ शब्दों के चुनाव तक है। एक काल विशेष पृष्ठ-भूमि रखने के कारण अपेक्षित यथार्थ भ्रम की सृष्टि के लिए मुझे तब भी यह आवश्यक लगा था और आज भी मेरी यह धारणा बदली नहीं हैं। अगर साधारण दर्शक तथा नाटक के संप्रेषण में इस से बाधा आती हो, ऐसी अब तक के अनुभव से सिद्ध नहीं होता।”(2)
  आषाढ़ का एक दिन नाटक की भाषा के अध्ययन से बात स्पष्ट हो जाती है कि समय और पात्र आदि परिवर्तन से भाषा के रुपाकार में तथनुरुप परिवर्तन अनिवार्य हो जाता है।
  वस्तुतः नाटक की भाषा की कठिनता एवं सरलता के संबंध में पिंडरनो के दृष्टिकोण के अनुरुप जयदेव तनेजा का यह कथन समीचीन है कि अच्छे नाटक में पात्र न आसान जबान बोलते हैं न कठिन। वह केवल वही शब्द बोलता है जो उस स्थिति में, उस भाव को व्यक्त करने के लिए बोलना चाहिए। वह शब्द और केवल वही शब्द उस स्थिति का वाहक बन सकता है।”(3) इस दृष्टि से आषाढ़ का एक दिन भी भाषा को अध्ययन करने पर निर्विवाद रुप से कहा जा सकता है कि इस नाटक की भाषा सशक्त एवं सर्वत्र कथ्य एवं पात्रों के अनुकूल है। नाटककार के रुप में मोहन राकेश की सबसे बडी देन नाट्य-भाषा की सही पहचान है। उनके नाटकों में प्रयुक्त प्रत्येक शब्द अपना विशेष अर्थ रखता है।
 आषाढ़ का एक दिन नाटक में मोहन राकेश ने शब्दों के माध्यम से जीवन के प्रत्येक अनुभूति को मंच पर साकार करने का प्रयास किया है। आषाढ़ का एक दिन की भाषा गहरी नाट्यानुभूति से पूर्ण है। नाटक की भाषा का सबसे प्रभावशाली स्तर उसका सार्वजनीन होना है। इसके लिए नाटककार का बोलचाल की भाषा का सहारा लेना पडता है। यह ठीक भी है क्योंकि इसके बिना न तो कोई नाटक अपना प्रभाव छोड सकता है और न उसकी कोई अर्थवत्ता हो सकती है। ऐसा इसलिए कह रही हूँ कि नाटक का सबसे निकटवर्ती संबंध मंचीय आवश्यकताओं से हैं। अतः जो भाषा न तो मंचीय आवश्याकताओं को पूरी करती है और न सार्वजनिक धरातल पर ही उतर सकती है, वह कोई भाषा नहीं है। सच्चा नाटक वही है जो बोलचाल की भाषा और स्पंदित कर देनेवाली भाषा से संबंध जोडता है। उपर्युक्त सभी तथ्यों को इकट्टा करें तो लगता है कि देश के अधिकांश लोगों की मनस्थिति उनक बोलचाल की भाषा और उनकी स्पंदित कर देनेवाली चेतना में रुपायित होती है। इस बोल चाल और हरकत को समाहित भाषा का उपयोग करके नाटक के अपने नियमों को निभाते हुए जो भी लिखा जायेगा, उसका एक सामाजिक महत्व भी होगा, क्यों कि वह लेखक के किसी खास अनुभव का चित्रांकन न करके बहुतों के अनुभवों के समावर्तक को उजागर करेगा। जिसे वे स्वयं नहीं वाणी दे पा रहे थे।”(4) जब तक नाटक के अनुभव के द्वारा दर्शक समूह के सामने प्रस्तुत नहीं हो जाता, तब तक वह अधूरा है -  आधा है। आषाढ़ का एक दिन की भाषा भी दो स्तर दिखाई देते हैं एक तो उस परिष्कृत शब्दावली की याद दिलाता है जिसकी परंपरा प्रसाद ने डाली और दूसरा उस रोमानी यथार्थ की वाहिका भाषा की जैसे सहज और विश्वसनीय होने से प्रेषणीयता से युक्त है। नाटक के प्रारंभिक अंकों में भाषा का तत्सम और परिष्कृत रुप मिलता है तो अंतिम अंक में और खासकर मल्लिका और कालिदास के वार्तालाप में भाषा का यथार्थ रुप मिलता है। शब्दों का चुनाव और प्रयोग इतना सहज और विश्वसनीय है कि प्रेमी-युगल की वियोगानुभूति और अंतर्द्वन्द्वमयी  स्थितियों को उभारने के लिए इससे अच्छी और प्रमाणिक भाषा दूसरी नहीं हो सकती थी – जैसे –
मल्लिका :  द्वार बंद रहने दो। तुम जो बात कर रहे हो, करते जाओ।
कालिदास : देखो तो लो कौन आया है ?
मल्लिका : वर्षा का दिन है। कोई भी हो सकता है। तुम बात करते रहो।   
  वह चला जायेगा।”(5) इन शब्दावली में मल्लिका के प्रेमिल हृदय की समर्पणशीलता को तो ठीक ढंग से अभिव्यक्ति मिली ही है, आधुनिक संदर्भों में नित्यप्रति बढ़ती जा रही विषमता और बेफिक्र होकर अपने प्रति आश्वस्त बने रहने की यथार्थवादी भूमिका को भी। विलोम और कालिदास व मल्लिका के संवादों में भी भाषा का यही बोलचाल वाला साधारण रुप मिलता है। उस में यथार्थ अनुभवों का खरापन है। न कहीं कोई बनावट है और न जडाव-सजाव ही। आलोच्य नाटक के शब्द प्रभावी हैं, उनसे निकलने वाला अर्थ मारक है और इन से बनी शैलि सादगीपूर्ण तो है। किंतु कहीं अधिक क्लिष्ट होने से दुर्बोध हो गई। रोमानी संदर्भों को यथार्थ के नजरिए से देखने  के लिए भाषा में  जिस व्यक्तित्वमत्ता और चुटीले अहसास की जरुरत होती है, वह आषाढ़ का एक दिन में उपलब्ध है। कुल मिलाकर भाषा सरस, सजीव, प्रेषणीयता से समन्वित होकर कृति में आई है। मोहन राकेश ने तत्कालीन युग की दृष्टि से यहाँ संस्कृतनिष्ट भाषा का प्रयोग किया है जो उचित ही है। शर्करा, तल्प, प्रकोष्ठ, स्वस्तिक-चिह्न, कुंभ, आस्तरण, उपत्यकाएँ आदि शब्द तथा अंक एक में मल्लिका द्वारा उच्चरित मेघदूत की पंक्तियाँ इसका प्रमाण हैं। वस्तुतः भाषा के इस रुप के अभाव में कालिदास के कवि रुप और उसके युग की विश्वसनीयता नाटक में लाना असंभव था। इस नाटक के संवादों की एक अन्य विशेषता अनायास ही जीवन के शाश्वत सत्यों का उद्घाटन करना भी है – जीवन की स्थूल आवश्यकतायें ही तो सब कुछ नहीं है।”(6) योग्यता एक चौथाई व्यक्तित्व का निर्माण करती है, शेष पूर्ति प्रतिष्ठा द्वारा होती है – कोई व्यक्ति उन्नति करता है तो उसके नाम के साथ कई तरह के अपवाद भी अनायास ही जुडने लगते हैं। जैसे वाक्य नाटक में प्रासंगिक अर्थ को लांघकर सार्वकालिक अर्थ दे जाते हैं। मोहन राकेश की भाषा कहीं भी औपचारिक नहीं प्रतीत होती है। परिस्थिति और पात्र की माँग के अनुसार भाषा ढलती रहती है। केवल शब्दों के बल पर मल्लिका को भाव भीना चरित्र, अंबिका की मूक वेदना तथा कालिदाल का अंतर्द्वन्द्व नाटक में साकार हो उठे हैं। लक्षणा और व्यंजना के प्रयोग से नाटक की भाषा को नये अर्थों से समृद्ध किया है --- मैं अनुभव करता हूँ कि ग्राम प्रांतर मेरी वास्तविक में भूमि है। मैं कई सूत्रों से इस भूमि से जूडा हूँ - ... यहाँ से जाकर मैं अपनी भूमि  से उखाड जाऊँगा।”(7) लगता है तुमने अपनी आँखों से इन कोरे पृष्ठों पर बहुत कुछ लिखा है... पृष्ठ अब कोरे कहाँ  हैं मल्लिका? इन पर एक महाकाव्य की रचना हो चुकी है। ... अंततः सर्गों के महाकाव्य की।”(8) जैसे संवाद नाटकीय भाषा में लक्षण और व्यंजना के अनूठे प्रयोग की कुशलता का प्रमाण हैं। पात्रों में मनस्थितियों के अनुकूल भाषा का प्रयोग कोई मामूली बात नहीं है। मोहन राकेश के इस नाटक की भाषा परिष्कृत होकर भी सरस और प्रवाहमय है। वह पात्रों की मनःस्थिति की वाहिका है। स्थान-स्थान पर इन पानी की बूँद पडी हैं, जो निस्संदेह वर्षों की बूँद नहीं है। लगता है तुमने आँखों से इन कोरे पृष्ठों पर बहुत कुछ लिखा है और आँखों से ही नहीं स्थान-स्थान पर ये पृष्ठ स्वेद कणों से भीगे हुए हैं। स्थान-स्थान पर फूलों की सूखी पत्तियों ने अपने रंग इन पर छोड दिये हैं। कई स्थानों पर तुम्हारे नखों ने इन्हें छीला है, तुम्हारे दाँतों ने इन्हें काटा है और इसके अतिरिक्त ये ग्रामीण की धूप के हल्के गहरे रंग, हेमंत की पत्रधूलि और इस घर की सीलन .... ये पृष्ठ अब कोरे कहाँ के मल्लिका ? इन पर एक महाकाव्य की रचना हो चुकी है ... अनंत सर्गों के महाकाव्य की।”(9) इतना ही नहीं आषाढ़ का एक दिन की भाषा शैलि बहुत से प्रसंगों में साहित्यिकता की कैंचुल फाडकर जन भाषा के अधिक निकट आ गई। यथा - 
मल्लिका – माँ आज तक जीवन जिस किसी तरह बीता ही है। आगे बीत जायेगा। आज जब उनका जीवन नयी दिशा ग्रहण कर रहा है, मैं उनके सामने अपने स्वार्थ का उद्घोष नहीं करना चाहती।”(10)
 नाट्यानुभूति से पूर्ण, काव्यात्मक और पात्रानुकूल भाषा का प्रयोग आलोच्य नाटक में किया गया है। इसकी प्रभाव क्षमता  असंदिग्ध है। संस्कृतनिष्ट भाषा होते हुए भी नाटक आम दर्शक तक अपना संप्रेष्य पहुँचने से सफल है। नेमिचंद्र जैन का कथन इस नाटक की भाषा की प्रभाव-क्षमता के विषय में सत्य प्रतीत होता है -  बिंबों के बड़े प्रभावी नाटकीय प्रयोग के साथ-साथ उसमें शब्दों की अपूर्व मितव्ययता भी है और भाषा में ऐसा नाटकीय काव्य है, जो हिंदी नाटकीय गद्य के लिए एकदम अभूतपूर्ण है और अचानक ही हिंदी नाटक का वयस्क होना सूचित करता है।”(11) आषाढ़ का एक दिन नाटक की भाषा की सर्वप्रमुख विशेषता है कि भाषा और शारीरिक क्रिया का संबंध। हिंदी नाटक में यह विशेषता सर्वप्रथम मोहन राकेश के ही नाटकों में दिखती है। संवाद और पात्रों की क्रियाओं का समन्वय व्यक्तित्व की उलझन और नाटक के संपूर्ण द्वन्द्व को मूर्त कर जाती है। नाटक के प्रारंभ में ही अंबिका का छाज में धान फटकते हुए झरोखे की ओर देखकर लंबी सांस लेना और अग्नि-काष्ठ लेकर बुझे दीपक जलाने की विलोम की क्रिया अनकहे शब्दों में बहुत कुछ कह जाती है। आलोच्य नाटक की भाषा में पर्याप्त व्यंग्यात्मकता भी है।  वाक चातुर्य पूर्ण व्यंग्यात्मक उक्तियों के तो उस में स्थल-स्थल पर दर्शन होते हैं। अंबिका और विलोम की उक्तियों में इस प्रकार की भाषा को देखा जा सकता है। अंबिका अपनी पुत्री मल्लिका से इस कारण बड़ी विक्षुब्ध रहती है कि वह भावना सागर में निमग्न हुई जगत की कुरुप वास्तविकताओं के प्रति आँखे बंद किये रहती है। इसी कारण अंबिका अपनी कुढन को जिस भाषा में  स्पष्ट करती है। वह दृष्टव्य है -  मैं जानती हूँ कि तुम पर आप अपना अधिकार भी नहीं है।”(12) लो मेघदूत की पंक्तियों पढ़ो। इन्हीं में न कहती थीं कि उसके अंतर की कोमलता साकार हो उठी है? आज उस कोमलता का और साकार रुप देख लिया?”(13) मैं घर में दुकेली कब होती हूँ तुम्हारा यहाँ रहने पर भी मैं अकेली नहीं होती?”(14) यहाँ व्यंग्य के सहारे अंबिका कालिदास की कुटिल स्वाभाव की निंदा करती है। नाटकीय भाषा का सफल प्रयोग कर के  मोहन राकेश ने पात्रों का चरित्रोद्धाटन मार्मिक ढ़ंग से किया है। अंबिका की ये व्यंग्योक्तियाँ आलोच्य नाटक की भाषा शैलि की रम्यता को अभिवृद्धि करने में सहायक सिद्ध हुई हैं। नाटक की भाषा का जो दूसरा स्तर बोलचाल या जन भाषा से संबंध होता है वह आलोच्य नाटक में मुहावरों और लोकोक्तियों व सूक्तियों से तो और चमक उठा है। तिल -मिल कर गलना, तीसरा नेत्र खुलना, आँखें गीली होना, शरीर निचुडने लगना, ओठ फड-फडाने लगना, स्वयं पर अपना भी अधिकार न रहना और अपवाद फैलाना आदि मुहावरों के प्रयोग से भाषा यथार्थ अनुभूतियों को बिंबों में बाँधने में सफल हुई है। नाटक में कतिपय सूक्तियाँ भी बड़ी मार्मिक हैं। उन में प्राणों को अकुला देनेवाली चेतना है,  हम एक दूसरे से बहुत निकट पडते हैं।”(15) अथवा किसी संबंध से बचने के लिए अभाव जितना बड़ा कारण होता है। अभाव की पूर्ति उस से बड़ा कारण बन जाती है।”(16) आषाढ़ का एक दिन नाटक की भाषा बड़ी सरल, सहज, जीवंत और प्रवाहमय है। शब्दों के प्राणों में भावों को जगाने की अद्भुत क्षमता है। तभी तो भावों का आसव पीकर शब्दों में तिलमिला देनेवाली वेदना का स्पर्श है। कथानक की मार्मिकता को बढ़ाने के लिए नाटककार ने भाषा का सशक्त प्रयोग किया है। भाषा के संदर्भ में आषाढ़ का एक दिन नाटक की शिल्पगत प्रयोग उसकी रंग – परिकल्पना गहराई से संक्लिष्ट हैं। वस्तु के अनुरुप भाषा की प्रस्तुति की अपनी अलग पद्धति के कारण यह रचना हिंदी नाटक की प्रयोगधर्मिता में एक नया आयाम जोड़ती है। 
संदर्भ  :-
1.   Mohan Rakesh : Sangeet natak Journal 3rd October 1966, page 16
2.   मोहन राकेश : आषाढ़ का एक दिन , पृ,सं-7 (भूमिका)
3.   सुषमा अग्रवाल समकालीन नाट्य साहित्य और मोहन राकेश से उद्धृत, पृ.सं -  66
4.   बिपिन कुमार अग्रवाल : आधुनिकता के पहलू पृ.सं-92
5.   मोहन राकेश : आषाढ का एक दिन – पृ.सं-105
6.   मोहन राकेश : आषाढ का एक दिन – पृ.सं- 14
7.   मोहन राकेश : आषाढ का एक दिन – पृ.सं- 48
8.   मोहन राकेश : आषाढ का एक दिन – पृ.सं- 112
9.   मोहन राकेश : आषाढ का एक दिन – पृ.सं- 112
10.               मोहन राकेश : आषाढ का एक दिन – पृ.सं- 26
11.               नेमिचंद्र जैन – नटरंग –( अंक -21)
12.               मोहन राकेश : आषाढ का एक दिन – पृ.सं-13
13.               मोहन राकेश : आषाढ का एक दिन – पृ.सं-82
14.               मोहन राकेश : आषाढ का एक दिन – पृ.सं-9
15.               मोहन राकेश : आषाढ का एक दिन – पृ.सं-114
16.               मोहन राकेश : आषाढ का एक दिन – पृ.सं-26     

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