“अगर हम लोग अपना रोना बंद कर दे तो फिर हमारी मुक्ति हो जाए” चंद्रकला (सिंदूर की होली)




अगर हम लोग अपना रोना बंद कर दे तो फिर हमारी मुक्ति हो जाए

चंद्रकला (सिंदूर की होली)


                                                                        प्रो. एस.वी.एस.एस.नारायण राजू 

Vimal  Vimarsh,  6, 2018.
ISSN No. 2348-5884




     सिंदूर की होली लक्ष्मीनारायण मिश्र का सर्वश्रेष्ठ नाटक है, जिसमें उन्होंने चिरंतन नारीत्व की समस्या का प्रतिपादन किया है। नाटककार ने समकालीन भारतीय समाज में स्थित नारी समस्याओं का अंकन विभिन्न पात्रों के द्वारा किया है। वैधव्य भारतीय समाज के लिए एक कलंक है और इसे मिटाने का प्रयास राजा राममोहन राय, दयानंद सरस्वती जैसे समाज सुधारकों ने किया तथा विधवा के पुनर्विवाह का समर्थन करके भारतीय नारी की दयनीय दशा को सुधारना चाहा। सिंदूर की होली नाटक में इसी वैधव्य की समस्या को केंद्र में रखकर इस पर विभिन्न कोणों से चर्चा की गई है। चंद्रकला नाटक के केंद्रीय पात्र हैं जिनके द्वारा प्रणय और वैधव्य का संघर्ष अभिव्यक्त हुआ है।   

       चंद्रकला डिप्टी कलेक्टर मुरारीलाल की एक मात्र संतान है। उसकी आयु बीस वर्ष है तथा उसके मुख पर एक प्रकार की सरलता है, अल्हड़पन है। चंद्रकला का पालन-पोषण और शिक्षा-दीक्षा पाश्चात्य वातावरण में हुई और इसी कारण उसके विचारों तथा व्यवहार में स्वच्छंदता है। चंद्रकला के बारे में डॉ. विश्वनाथ प्रसाद ने लिखा है चंद्रकला नए विचारों वाले परिवार में जन्मी है। उसने नई शिक्षा पाई है और नए युग की चेतना में उसका संस्कार हुआ है।”(1)
          चंद्रकला स्वच्छंद तथा उन्मुक्त प्रेम की पक्षधर है। प्रथम दृष्टि में ही उसे रजनीकांत से प्रेम हो जाता है तथा यह जानते हुए भी कि रजनीकांत विवाहित है, वह उसे प्राप्त करने की इच्छा रखती हैं। यथा
   तब तो मैं पार्वती की तरह मृत्युन्जय के लिए तपस्या कर रही थी।”(2)

   चंद्रकला रजनीकांत की निर्मल मुस्कान, रतनारी आँखों तथा माथे पर झूलती हुई घने काले बालों की दो चार लटों पर अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देती है और अस्पताल जाकर मृतप्रायः रजनीकांत की उँगुलियों से अपने माथे पर सिंदूर लगाकर सिंदूर की होली खेलती है। डॉ. लक्ष्मीनारायण भारद्वाज के मत मेंचंद्रकला ने सिंदूर की होली खेली है। उसने सच्चे मन और आत्मा से अपने आपको समर्पित किया है।”(3)

     रजनीकांत के प्रति वह पूरी तरह समर्पित है। मरणासन्न रजनीकांत को देखने वह अस्पताल जाती है। उसे न अपने पिता के मान सम्मान का ध्यान है और न समाज का डर है। उसके पिता मुरारीलाल उसके इस कृत्य पर बहुत क्रोधित होते है और कठोर स्वर में पूछते है
 मुरारीलाल शाम को गई थी अस्पताल में? (जोर से) बोलती क्यों नहीं?
 चंद्रकला -   (धीमे स्वर में) जी....
 मुरारीलाल -  जी, क्या मेरे सामने लाज आ रही है और भरे अस्पताल में उसके सिर पर हाथ रखने में, उसके तलवों को सहलाने में लाज नहीं आई थी? ... मैं कल किस मुँह से कचहरी जाऊँगा। मुमकिन है कि कलक्टर सुनें तो समझें कि मैं (चंद्रकला वहाँ से जाना चाहती है) कहाँ चली? ठहर जा। मैं हार्गिज ऐसी बातें बर्दाश्त नहीं कर सकता। अपनी मर्यादा इस तरह मिट्टी में मिलने नहीं दूँगा। अस्पताल क्यों गई थी? किसकी आज्ञा से?
 चंद्रकला घूमने गई थी ....।”(4)

  रजनीकांत की मृत्यु का समाचार सुनकर चंद्रकला अपना श्रृंगार करती है। गले में चंद्रहार पहनकर तथा मांग में सिंदूर डालकर कहती है आज मैं भी विधवा हो गई”(5) उसके इस उन्माद पर मनोरमा दुःखी होकर उसे समझने का प्रयास करती है लेकिन चंद्रकला अपने वैधव्य को आत्मज्ञान करती है
 चंद्रकला छि ... उन्माद क्यों होगा। मेरे भीतर आज चिरंतन नारीत्व का उदय हुआ है। मेरी चेतना आज मेरे चारों ओर फैल रही है।”(6)

   चंद्रकला अपने वैधव्य को अमर बनाना चाहती है, लेकिन मनोरमा जानती है कि यह क्षणिक आवेश है, मात्र भावुकता है इसीलिए वह कहती है तुम क्या समझती हो वैसी हँसी, मुस्कराहट, शरीर की सुंदरता और उसका विकास, आँखों की बिजली और बालों का उन्माद उस कोटी का (चारों ओर हाथ उठाकर) इतने बड़े संसार में दूसरा न होगा? और तुम्हारी दानशील प्रवृत्ति वहाँ भी न उलझ जाएगी?”(7) चंद्रकला की स्वच्छंद प्रवृत्ति के कारण ही मनोरमा को उसके अनेक बार विधवा होने का डर है।

    चंद्रकला आधुनिक विचारों वाली युवती है तथा नारी स्वतंत्रता की पक्षधर है। उसके अनुसार नारी स्वयं अपने शोषण के लिए उत्तरदायी है
   स्त्री ने स्वयं अपना नरक बनाया है ... पुरुष उसके लिए दोषी नहीं है।”(8) चंद्रकला का मत है कि पुरुष ने रोटी और कपड़े की आड़ में नारी को गुलाम बनाया है तथा जब तक नारी अपने पैरों पर खड़ी नहीं हो जाएगी तब तक उसके उद्धार की कोई संभावना नहीं। यथा-
चंद्रकला रोटी और कपड़े के प्रश्न को लेकर की मर्यादा बिगड़ गई। हमारा .... स्त्रियों का निर्माण भी उन्हीं उपकरणों से हुआ है, जिनसे पुरुषों का हुआ है, लेकिन तब भी हम पुरुषों की गुलामी में सदैव से चली आ रही हैं। हमारे भीतर कभी संदेह पैदा नहीं  हुआ, ऐसा क्यों है?”(9)
  चंद्रकला नारी की इस दासता का मुख्य कारण नारी के उन गुणों को मानती है जिनकी प्रशंसा करके पुरुष न उसे बेड़ियों मे बाँध दिया और अपनी प्रशंसा से आत्म मुग्धा हुई नारी पुरुष के समक्ष सदैव के लिए समर्पित हो गई। कभी त्यागमयी, कभी स्नेहमयी, कभी प्रेरणामयी तो कभी वात्सल्य की देवी बनाकर  पुरुष उसे छलता रहा, उसका शोषण करता रहा। नारी तन से ही नहीं मन से भी कोमल होती है और पुरुष ने नारी की इसी दुर्बलता का अनुचित लाभ  उठाया है। यथा शरीर और मन की इसी कमजोरी के कारण हम संसार के उन्मुक्त वातावरण से खींचकर दीवालों के घेरे में ... डाल दी गई।”(10) चंद्रकला की यह दृढ़ मायता है कि यदि नारी अपने मन को मजबूत बना ले तो ही उसकी मुक्ति संभव हैं-
चंद्रकला अगर हम लोग अपना रोना बंद कर दे तो फिर हमारी मुक्ति हो जाए।”(11)

      चंद्रकला के अनुसार अपनी मुक्ति का प्रयास नारी को स्वयं करना है तथा पुरुष की चार हाथ की सेज को ही अपना संसार मानने की मानसिकता से बाहर आना है।

    चंद्रकला को सामाजिक रुढ़ियों के बंधन स्वीकार नहीं हैं। विवाह के अवसर पर होने वाले वेदमंत्रों, शंख ध्वनी, हवन, ब्रह्मभोज आदि को वह अर्थहीन मानती है। सामाजिक परंपराओं की पूर्णतया उपेक्षा करते हुए वह अस्पताल में मरणासन्न रजनीकांत के हाथों से अपनी माँग में सिंदूर लगवा कर स्वयं को विवाहित कहती है और मनोरमा के विरोध करने पर अपने वैधव्य का औचित्य सिद्ध करते हुए कहती है - 
चंद्रकला तो विवाह तो मेरा भी हो गया। हजार दो हजार आदमी भोजन न कर सकें, दस-बीस बार शंख न बजा, थोड़े से मंत्र और श्लोक न पढ़े गए। यही न?
मनोरमा तब विवाह कैसे हुआ?
चंद्रकला – (मुस्कराकर) विवाह की कई प्रणालियाँ हैं। हमारे ही यहाँ पहले प्रचलित थीं .... अब जरुर रुक गई हैं, लेकिन खैर ... मेरा तो हो गया जी।”(12)

     चंद्रकला अपने मत को ही शास्त्र मानती है अनुभूति को महत्व देकर सामाजिक परंपराओं की उपेक्षा करती है। यथा शास्त्र और संस्कार मेरा मत है ...  मेरी आत्मा को जो स्वीकार ... बस और कुछ नहीं ....।”(13) मनोरमा के वैधव्य को वह रुढ़ियों की देन मानती है क्योंकि जिस पुरुष को देखा ही न हो उसके नाम रुपी डोर से बँधकर वैधव्य को ढोना नितांत रुढ़िवादिता ही है। वह मनोरमा से कहती है बहन! तुम्हार विधवापन तो रुढ़ियों का विधवापन है, वेदमंत्रों का और ब्रह्मभोज का .... जिस पुरुष तुमने देखा नहीं ... जिसकी कोई धारणा तुम्हें नहीं है, जिसकी कोई स्मृति तुम्हारी आत्मा को हिला नहीं सकी... उसका वैधव्य कैसा हैं? तुम स्वयं सोच लो।”(14)  इस प्रकार वह सामाजिक परंपराओं के प्रति अपनी उपेक्षा अभिव्यक्त करती है।

    चंद्रकला भावुकता से आक्रांत है और अपने क्रियाकलापों में वह तथ्यों की अपेक्षा भावनाओं को अधिक महत्व देती है। वह अपनी प्रेम भावनाओं पर नियंत्रण नहीं रख पाती और मनोरमा से रजनीकांत का चित्र बनवाती है। मनोरमा का मत है कि चित्र को रजनीकांत की पत्नी के पास भेज देना चाहिए किंतु चंद्रकला को यह स्वीकार नहीं है, वह उसे सदैव अपने पास रखना चाहती है। यथा
मनोरमा किसी तरह यह चित्र उसकी स्त्री के पास पहुँचना चाहिए।
चंद्रकला खूब, कह रही हो। (सिर हिलाकर) चित्र बनवाया मैंने और भेज दूँ उसके पास।
मनोरमा -  दान कर दो ... अपनी तरह से, उसे इसकी जरुरत है।
चंद्रकला दूसरा बना दो....।”(15)

  इसी प्रकार नाटककार लक्ष्मीनारायण मिश्र ने चंद्रकला के चरित्र को स्त्री सशक्तीकरण के एक सफल प्रतीक के रुप में चित्रित किया है।  
                     
                      संदर्भ सूची

1. सिंदूर की होली(लक्ष्मीनारायण मिश्र रचनावली-खंड 2) – संपा. डॉ. विश्वनाथ प्रसाद पृ.सं.19
2. सिंदूर की होली(लक्ष्मीनारायण मिश्र रचनावली-खंड 2) - संपा. डॉ. विश्वनाथ प्रसाद पृ.सं.278
3. नाट्यलोचन डॉ. लक्ष्मीनारायण भारद्वाज पृ.सं.169
4. सिंदूर की होली(लक्ष्मीनारायण मिश्र रचनावली-खंड 2) - संपा. डॉ. विश्वनाथ प्रसाद पृ.सं.284
5. सिंदूर की होली(लक्ष्मीनारायण मिश्र रचनावली-खंड 2) - संपा. डॉ. विश्वनाथ प्रसाद पृ.सं.254
6. सिंदूर की होली(लक्ष्मीनारायण मिश्र रचनावली-खंड 2) -संपा. डॉ. विश्वनाथ प्रसाद पृ.सं. 280
7. सिंदूर की होली(लक्ष्मीनारायण मिश्र रचनावली-खंड 2) - संपा. डॉ. विश्वनाथ प्रसाद पृ.सं.282
8. सिंदूर की होली(लक्ष्मीनारायण मिश्र रचनावली-खंड 2) - संपा. डॉ. विश्वनाथ प्रसाद पृ.सं.282
9. सिंदूर की होली(लक्ष्मीनारायण मिश्र रचनावली-खंड 2)-संपा. डॉ. विश्वनाथ प्रसाद पृ.सं. 279-280
10. सिंदूर की होली(लक्ष्मीनारायण मिश्र रचनावली-खंड 2) -संपा. डॉ. विश्वनाथ प्रसाद पृ.सं. 280
11. सिंदूर की होली(लक्ष्मीनारायण मिश्र रचनावली-खंड 2) संपा. डॉ. विश्वनाथ प्रसाद पृ.सं. 280
12. सिंदूर की होली(लक्ष्मीनारायण मिश्र रचनावली-खंड 2) - संपा. डॉ. विश्वनाथ प्रसाद पृ.सं.279
13. सिंदूर की होली(लक्ष्मीनारायण मिश्र रचनावली-खंड 2) - संपा. डॉ. विश्वनाथ प्रसाद पृ.सं. 283
14. सिंदूर की होली(लक्ष्मीनारायण मिश्र रचनावली-खंड 2) - संपा. डॉ. विश्वनाथ प्रसाद पृ.सं.282
15. सिंदूर की होली(लक्ष्मीनारायण मिश्र रचनावली-खंड 2) - संपा. डॉ. विश्वनाथ प्रसाद पृ.सं.253

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