स्त्री विमर्श पर एक जरुरी किताब
स्त्री विमर्श पर एक जरुरी किताब
प्रो.एस.वी.एस.एस. नारायण राजू
स्वतंत्र वार्ता, हैदराबाद,
18 अप्रैल 2004
बीसवी शताब्दी
के अंतिम दशकों में उत्तर आधुनिक विमर्श के प्रभाव से विकासशील देशों में जो नए
विचारवृत्त उभरे उनमें स्त्री विमर्श का स्थान अत्यधिक महत्वपूर्ण है। स्त्री
वाद और स्त्रीमुक्ति की सैद्धांतिक
चर्चाएँ तो इस शताब्दी में पूरी दुनिया में होती ही रहीं लेकिन भारतीय संदर्भ में
उसे कोई सार्थक रुपाकार नहीं मिल सका। अब वाद और आंदोलन का घटाटोप छँट जाने पर
विमर्श की जो हवा चली है वह हमारी परंपरा और परिस्थिति के अधिक अनुकूल है। स्त्री
विमर्श इस बात पर बल देता है इतिहास से
लेकर संस्कृति तक और समाज से लेकर व्यक्ति तक को विवेचित करने का दृष्टिकोण बदलना
चाहिए। यह दृष्टिकोण अब तक पुरुषकेंद्रीत रहा है। स्त्री-विमर्श इन सबको स्त्री
केंद्र से देखना चाहता है। यह वास्तव में अवलोकन बिंदु का बदलाव है। इसे
पुरुषकेंद्रीत विमर्श के विरोध के रुप में नहीं, वरन उसके समान महत्वशाली परिपूरक
विमर्श के रुप में देखा जाना आवश्यक है।
डॉ. ऋषभ देव शर्मा के प्रधान संपादकत्व तथा डॉ.
गोपाल शर्मा और श्रीमती कविता वचक्नवी के संपादन में प्रकाशित वृहदकार कृति “स्त्री सशक्तिकरण के विविध आयाम” (2004) इसी आवश्यकता की पूर्ति
करनेवाली एक जरुरी किताब है।
‘स्त्री सशक्तीकरण के विविध आयाम’ के संपादकीय में यह स्पष्ट किया
गया है कि यह कृति एक सामाजिक अभिमान का अंग है। स्त्री सशक्तिकरण का यह अभियान
इतनी सी आकांक्षा से संचालित है कि समाज के सभी नेत्रों में स्त्री के अस्तित्व को
मनुष्य के रुप में स्वीकृति प्राप्त हो। यह पुस्तक किसी प्रकार के समाधान और
नेतृत्व के बड़बोलेपन से ग्रस्त नहीं है बल्कि समाज, संस्कृति और साहित्य को
स्त्री की सापेक्षता में विवेचित करते हुए अपने पाठक को जागरुक बनाना चाहती है।
जागरुकता से आगे की यात्रा जगे हुए नागरिकों को स्वयं तय करनी है। यह पुस्तक इस
बात पर भी बल देती है कि अपनी अस्मिता और व्यक्तित्व की गरिमा के प्रति जागरुक हुए
बिना हर सशक्तिकरण अधूरा है।
समीक्षा ग्रंथ में भारतीय संदर्भ में घर परिवार
और विवाह जैसी संस्थाओं और स्त्री सशक्तिकरण के द्वन्द्वात्मक संबंध का भी खुलासा
किया गया है। इसमें हिंसा, यौनाचार और बाजारवाद से जुड़े खतरों की तरफ भी इशारा
किया गया है। प्रधान संपादक के शब्दों में “भारतीय परिप्रेक्ष्य में यह भी ध्यान रखना
होगा कि स्त्री सशक्तीकरण का लक्ष्य शहरी और सुविधासंपन्न स्त्री तक सीमित नहीं
वरन् ग्रामीण और आदिवासी क्षेत्र तक की स्त्री का इसमें सम्मिलित होना अनिवार्य
है। साहित्य, शिक्षा, आर्थिक विकास और राजनैतिक चेतना सभी स्तरों पर ग्रामीण
स्त्री की सक्रिय और सार्थक भागीदारी को सुनिश्चित करना होगा। तभी यह अभियान
पूर्णत प्राप्त कर सकता है। धर्म, जाति और संप्रदाय की सीमाओं से परे यह भी
सुनिश्चित करना होगा कि स्त्री-संतान को केवल ससुराल जाने के लिए तैयार न किया
जाए। बल्कि जीवन और जगत के हर मोर्चे के लिए प्रशिक्षित किया जाए। इससे व्यवस्था
में विभिन्न स्तरों पर और विभिन्न क्षेत्रों में स्त्री की भागीदारी को बढ़ाया जा
सकता है और उसे एक पूर्ण मानव के रुप में प्रतिष्ठित किया जा सकता है।”
यह ग्रंथ कुल सात खंडों में विभाजित है।
पहला खंड है ‘उषा सुनहले तीर बरसती’ इसमें स्त्री सशक्तिकरण के
मूलभूत समसामयिक पहलुओं को विवेचित किया गया है। डॉ. नारायण दत्त पालीवाल ने नारी
को उसकी शक्ति और क्षमताओं का अहसास कराने की सब से पहला काम माना है। रमणिका
गुप्ता स्वालांबन को स्त्री सशक्तीकरण का आधार मानती हैं। उन्होंने उदाहरणों के
साथ यह सिद्ध किया है कि स्वावलंबन और अस्मिता की भावना स्त्री को उस पर थोपी गयी
परंपरागत संहिताओं के मकड़जाल से भी मुक्त कराती है। एम. उपेंद्र ने स्त्री
सशक्तीकरण की अर्थशास्त्र सम्मत व्याख्या की है और इसे भारत के संदर्भ में जाति
तथा वर्ग के अंतर्विरोधी एवं अंतःसंबंधी समीकरणों का अध्ययन कहा है।
संपादक डॉ. गोपालशर्मा ने
विस्तार से भाषिक संदर्भ का सर्वेक्षण करते हुए यह स्थापित किया है कि भाषा-ज्ञान
की स्त्री की सशक्तता से सीधा संबंध है। डॉ. कृष्ण चंद्र गुप्त और तारा सिंह ने
नारी संगठन और सृजनात्मकता के विकास को जरुरी बताया है। डॉ. कामिनी बाली ने स्त्री
की मुक्ति और परिवार की आवश्यकता को एक साथ साधने की बात कही है। आशा शुक्ल यह
अपेक्षा करती हैं कि पुलिस समाज में सुरक्षा का वातावरण बनाकर स्त्री असुरक्षा बोध
से मुक्त करे।
दूसरा खंड का शीर्षक है “विश्वंभरा वसुधानी प्रतिष्ठा”। इस खंड में भारतीय नारी के
परंपरागत स्वरुप, मध्यकाल में उसके स्थित-विपर्यय और आधुनिक काल में नवजागरण के
परिणामस्वरुप नवीन अभिज्ञान के इतिहास का विवेचन किया गाया है। इस खंड के लेखक हैं
डॉ. भवानी लाल भारतीय, प्रो. राजेंद्र जिज्ञासु और आचार्य आर्य नरेश। यह खंड यह
विश्वास दिलाता है कि स्त्री सशक्तीकरण का यह अभियान मूलतः भारतीय धरती का अपना
अभियान है, आयातित नहीं।
तीसरा खंड
है “मुझे भी
तोड़ना है शिव का धनुष’’। इसमें भी तीन आलेख हैं। पूर्णिमा
शर्मा ने पश्चिमी स्त्री मुक्ति आंदोलन की सूत्रधार सीमोन द बोउवर की कृति ‘दे सेकेंड सेक्स’ का पुनरवलोकन किया है, तो
सुप्रणीति वरेण्या ने भारतीय, विशेष रुप से हिंदी जाति के स्त्री विमर्श की
प्रवर्त्तक महादेवी वर्मा की कृति ‘श्रृंखला की कडियाँ’ की प्रासंगिकता को उजागार किया
है। चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने तस्लीमा नसरीन की स्त्री विषयक मान्यताओं पर
पुनर्विचार किया है। यह खंड स्त्री सशक्तीकरण के अभियान को वैचारिक आधार प्रदान
करता है।
समीक्ष्य ग्रंथ का चौथा खण्ड “साहित्य विवेचन’’ पर केंद्रीत है। इसका शीर्षक है
“लकीरों के
बीच झाँकता है आसमान”। इसमें
कुल दस आलेख हैं और हर आलेख किसी संपूर्ण शोध प्रबंध के प्रस्ताव सरीखा है। इन सभी
विषयों पर पूर्णीकार शोधकार्य की आवश्यकता है।
प्रो. दिलीप सिंह ने “देखना है जोर कितना बाजू ए कातिल
में है” के
अंतर्गत यह प्रतिपादित किया है कि सृजन की लड़ाई बाजुओं की ताकता से नहीं कलम की ताकत
से जीती जाती है। वे आगे कहते हैं “हिंदी का स्त्री लेखन अपनी
प्रकृति और संघटन में तो सशक्त है ही वह भारतीय स्त्री की शक्ति और उसके संघर्षों
को नए मायने भी दे रहा है। इस साहित्य का प्रमुख लक्ष्य ‘आस्वादन’ नहीं ‘सार्थक बदलाव’ है और यही इसकी सबसे बड़ी शक्ति
है।’’
डॉ. वीरेंद्र सक्सेना ने
लेखिकाओं द्वारा लिखे उपन्यासों की नई रचना दृष्टि पर तथा डॉ.सच्चिदानंद चतुर्वेदी
ने हिंदी कहानी में स्त्री के बदलते रुप पर
शोधपूर्ण दृष्टिपात किया है। डॉ. रविरंजन ने स्त्री लेखन की स्वतंत्र पहचान
के संदर्भ में हिंदी के गीत काव्य का पुनर्मुल्यांकन किया है जबकि संपादिका कविता
वाचक्नवी ने स्त्री सशक्तीकरण के विविध आयामों के अवलोकन बिंदु से हिंदी के नाटक
साहित्य का मौलिक पुनर्पाठ प्रस्तुत किया है। इसी क्रम में डॉ. ऋषभ देव शर्मा ने
हिंदी के एकांकी साहित्य में अबला के स्थान पर सबलाओं को खोजने का सार्थक प्रयास
किया है।
दो आलेख
तेलुगु साहित्य पर केंद्रीत हैं। डॉ.भागवतुल सीताकुमारी ने नारीवादी तेलुगु
कविता का विद्वत्तापूर्ण विवेचन प्रस्तुत
किया है और यह भी कहा है कि स्त्रीवादी साहित्य सर्जकों को अपनी विचारधारा को
पुरुष-विरोध वाद ने बनने से बचाना होगा। प्रो. एस.ए. सूर्यनारायण वर्मा ने अपने
शोधपूर्ण आलेख “समकालीन
तेलुगु नाटक : स्त्री
सशक्तीकरण के संदर्भ में” सप्रमाण यह प्रतिपादित किया है
कि “तेलुगु
नाटककारों ने अपनी कृतियों में जहाँ शोषित प्रताड़ित ग्रामीण-शहरी महिलाओं के दुःख
दर्द को प्रभावशाली ढंग से रेखांकित किया है, वहीं इनके कल्याणार्थ मानवीय दृष्टि
विकसित करने पर भी बल दिया है ताकि स्त्री सशक्तीकरण महज नारों या निजी स्वार्थ
में लिप्त कुछ संगठनों तक ही सीमित होकर न रह जाए।”
डॉ. नवनीत ठक्कर ने समकालीन गुजराती साहित्य
में सशक्त स्त्री की छवि को उजागार किया है तो डॉ. ए.चारुमति रामदास ने रुसी
साहित्य के संदर्भ में स्त्री सशक्तीकरण की यात्रा को शून्य से शून्य तक की यात्रा
माना है। उन्हें इस बात का मलाल है कि सोवियत संघ के विघटन के बाद वहाँ नारीत्व की
गरिमा खतरे में पड़ गयी है। रुस में आज
स्त्री को केवल ‘भोग्य’ ही नहीं अपितु माल समझा जाने
लगा है। उन्होंने यह आशा व्यक्त की है कि आर्थिक व्यवस्था के धीरे-धीरे सुदृढ़
होने के साथ शायद समूचे समाज और फलतः नारी को भी कुछ अच्छे दिन देखने को मिलेंगे।
इस प्रकार समीक्ष्य ग्रंथ का यह चौथा खण्ड
साहित्य स्त्री विमर्श केंद्रीत पाठ निर्माण की दृष्टि से हिंदी आलोचना के क्षेत्र
में पथ प्रदर्शक माना जा सकता है।
ग्रंथ के पांचवें खण्ड का शीर्षक है “मैं गंगा हूँ, मैं यमूना हूँ,
मैं चंदरभागा”। इस खण्ड
में भारत के अलग-अलग क्षेत्रों में स्त्री सशक्तीकरण की ऐतिहासिक और समसामयिक
दिशाओं और उपलब्धियों पर प्रकाश डाला गया है।
डॉ. देवराज ने ऐतिहासिक
पृष्ठभूमि का खुलासा करते हुए मणिपुर की स्त्रीयों की सबलता की चर्चा की है और कहा
है कि मणिपूरी स्त्री की सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक, ,साहित्यिक, आर्थिक, खेल
संबंधी और जीवन के अन्य क्षेत्रों में निभायी
जानेवाली भूमिका के प्राचीन और
वर्तमान रुप का अध्ययन करके स्त्री सशक्तीकरण के आधुनिक व्याख्याता बहुत कुछ सीख
सकते हैं। इस क्रम में डॉ. प्रतिभा मुदलियार ने महाराष्ट्र, डॉ. एन.ई. विश्वनाथ
अय्यर ने केरल, डॉ. सरोजिनी सिंह ने झारखंड, डॉ. राजेश्वरी शांडिल्य ने भोजपूरी
क्षेत्र और डॉ. सुधाकर आशावादी ने खड़ीबोली क्षेत्र में स्त्री सशक्तीकरण की दशा
और दिशा का तथ्यों पर आधारित विवेचन प्रस्तुत किया है। प्रकारांतर से यह खण्ड भारतीय स्त्री के विकास से संबंधित अनेक
समस्याओं के व्यावहारिक समाधान के यथार्थ प्रतिदर्श भी प्रस्तुत करने में समर्थ
है।
छठा और सातवाँ खण्ड हैदराबाद की
हिंदी लेखिका और सामाजिक कार्यकर्ता डॉ. अहिल्या मिश्र के व्यक्तित्व पर केंद्रीत
हैं। “कर्मशिला
से बनती हैं सपनों की मूरत” शीर्षक
छठे खण्ड में अनेक परिचय और साक्षात्कार सहित चवालीस छोटे-बड़े आलेख सम्मिलित हैं।
साथ ही कुछ पत्रांश भी हैं। सातवें खण्ड “चित्रदीर्घा” में डॉ. अहिल्या मिश्र के पैंतालिस चित्र
हैं जो इस ग्रंथ को पठनीय के साथ-साथ दर्शनीय भी बनाते हैं। इन दो खण्डों की
चरित-नायिका डॉ. अहिल्या मिश्र को ही यह ग्रंथ उनके मित्रों, प्रशंसकों और
शुभचिंतकों की ओर से सादर समर्पित किया गया है। इसीलिए ग्रंथ के शीर्षक के साथ
कोष्टक में “डॉ.
अहिल्या मिश्र के निमित्त” भी अंकित
किया गया है। छठे और सातवें खण्ड का अनुशीलन करने से यह अपने-आप स्पष्ट हो जाता है
कि उनका व्यक्तित्व और कृतित्व इस ग्रंथ के सर्वथा अनुरुप है। अपने सतत जीवनसंघर्ष
और प्रबल जिजीविषा के परिणाम स्वरुप ही वे इस साहित्यिक सम्मान की अधिकारी बनी है।
निःसंदेह स्त्री-विमर्श विषयक
अध्ययन की दृष्टि से यह ग्रंथ संदर्भ का काम करेगा। यही कारण है कि प्रों. दिलीप
सिंह और डॉ. रोहिताश्व ने अपने वक्तव्यों में इस पुस्तक को विद्वानों,
शोधार्थियों, सामाजिक कार्यकर्त्ताओं और जन सामान्य के लिए समान रुप से उपयोगी
बताया है।