“त्रिशूल” : जातिगत समस्याएँ
“त्रिशूल” : जातिगत
समस्याएँ
प्रो.एस.वी.एस.एस.नारायण राजू.
हिंदी और तेलुगु दलित आत्मकथाओं का तुलनात्मक
अध्ययन,2016.
ISBN No. 978-81-921270-4-0
जातिवाद हमारे समाज में अरसे से जडे
जमाये बैठा है. शिवमूर्त्ति ने स्पष्ट
किया है कि जातिवाद के कारण मानव-मानव के बीच ऐसी दूरियाँ स्थापित हो जाती हैं कि
वह चाहने पर भी एक दूसरे के निकट नहीं आ सकता.
जातिवाद से उत्पन्न पारस्परिक घृणा, ईर्ष्या और द्वेष से न केवल सामाजिक
जीवन कटुतापूर्ण बनता है बल्कि राष्ट्र शक्ति का ह्रास भी होता है. इतिहास साक्षी है कि यदि हम जातिवाद के इस
संकीर्ण दायरे में बंधे न होते तो हमारे देश पर विदेश जातियों का अधिकार ही नहीं
हो सकता था. शिवमूर्त्ति ने दर्शाया है कि
वर्तमान समय में हम जो अलगाव, अनाचार और हिंसा का वातावरण देख रहे हैं उसका कारण
जातिवाद की भावना ही है.
‘त्रिशूल’ स्थूल रुप में मंदिर-मंडल की कहानी माना जा
सकता है. मंडल आयोग की सिफारिशें लागू
होने की घोषणा से समाज के सबसे बडे समुदाय में दरार पड जाती है. आपसी स्वार्थ सामने आ जाते हैं. जातिवाद की भावना प्रबल होने के कारण भारतीय
हिंदू समाज छिन्न - भिन्न हो जाता है
पाल साहब के माध्यम से शिवमूर्त्ति
ने इस प्रकार अभिव्यक्त किया है कि … “जब से मंडल
आयोग की सिफारिशें लागू किए जाने की घोषणा हुई है, उसके समर्थकों और विरोधियों के
रूप में पूरा हिंदू समाज दो फाँकों में बँटता जा रहा है.”(1) शिवमूर्त्ति ने ‘त्रिशूल’ में
जातिवाद के कोढ़ को उजागर करते हुए स्पष्ट किया है कि हमारे भीतर जातिवाद का यह
विष-वृक्ष इतना-विकसित हो चुका है कि आज हम दायरे से बाहर नहीं निकलना चाहते. हमारे विचार इतने दूषित हो चुके हैं कि हम अपनी
जाति के लोगों से ही आत्मीय संबंध रखना चाहते हैं और दूसरी जाति के लोगों के प्रति
अलगाव व इर्ष्या की भावना. इसका चित्रण
शिवमूर्त्ति ने इस प्रकार किया है कि ..
“.......
आजकल बिना किसी की जाति जाने, खासकर
आरक्षण से जुडे मुद्दों पर अपनी बेबाक राय देना खतरे से खाली नहीं रह गया है. बीसों साल की दोस्ती में दरार पड सकती है. एक समय था, डॉ. लोहिया ने नाम से जाति-सूचक
शब्द हटाने की मुहिम चलाई थी. जाति-पाँति
तोडने का आंदोलन चलाया था. लेकिन आज अगर
आप पिछडी या छोटी कही जाने वाली जातियों में से हैं और नाम में जातिसूचक नहीं लगाते तो स्वजातीय
कहेंगे-साला जाति छिपाता घूमता है. दोगला
है. आगर आगडी मानी जानेवाली जाति के हैं
तो स्वाजातीय कहेंगे – बडका प्रगतिशील बना घूमता है. पाखंडी है.”(2)
कपोल-कल्पित घटनाओं का साक्ष्य देकर धर्म के
अधिकारी निम्न जाति के लोग के स्पर्श को अपवित्र मानते हैं. मानवता की दृष्टि से भी यह स्थिति उचित नहीं कहीं जा सकती. ईशवर के यहाँ से किसी प्रकार का कोई भेदभाव
निर्मित नहीं होता उसके दरबार में सब बराबर हैं चाहें वह धनी हो या निर्धन, छोटा
हो या बडा, ब्राह्मण हो या शूद्र. ‘वसुधैव
कुटुंबकम’
की भावना हमारी संस्कृति की गरिमा है लेकिन धर्म के ठेकेदारों ने इसको कलंकित किया
है. दलित लोकगायक पाले समाज में फैले
जातिवाद को इन्हीं की देन मानता है. ‘वसुधैव
कुटुंबकम’
के नारे के लिए पाले कहता है.. “इस नारे से
ऊँचा कोई दूसरा नारा शायद ही हो दुनिया में.
लेकिन अपने पुरखों के इस नारे में भाई लेगों ने ऐसी मिलावट की कि एक से बढकर
हम साढे चार हजार हो गए. साढे चार हजार
जातियाँ. इससे भी सैकडों तो ऐसी जिनकी
परछाई पडने मात्र से निर्जीव लोटा, थारी, कूप, बावडी तक अपवित्र हो जाएँ. जितनी जाति-पाँति और छुआछूत ‘वसुधैव
कुटुंबकम’
का नारा देनेवालों ने फैलाया....”(3)
इस
जातिवादी जहर के कारण हमारे आपसी रिश्तों में खटास पैदा हो जाती है. सामज का अंग-अंग विषमय हो जाता है. शिवमूर्त्ति ने क्लब में दरोगाजी और मिसराजी
के बीच जाति के कारण हुई मारपीट से दर्शाया है कि जातिवाद की जहर पुराने दोस्तों
की मित्रता को भी समाप्त कर देता है.
चौकीदार, पालसाहब को बताता है कि मुख्यमंत्री और राममंदिर को लेकर दरोगाजी
और मिसराजी के बीच विवाद हो गया. मिसराजी
द्वारा मुख्यमंत्री को उल्टा-सीधा कहने पर
दरोगाजी इस बात को सहन नहीं कर सके. क्लब
चौकीदार, पाल साहब से कहता है कि ...
“मुखमंतिरी
उन्हीं की जाति के हैं न सरकार. गुसाईंजी
कहिन हैं, सबसे कठिन जाति अपमाना. कैसे
बरदास होता है ? ”
“क्या ? दरोगाजी
तो एस. पी. सिंह हैं न ?”
“इस. पी.
सिंह तो हैं सरकार. मुला मुखमंतिरी के
बिरादरी भी है.. और मिसराजी यह बात जानते नहीं थे सरकार.”(4)
इस
प्रकार शिवमूर्त्ति ने यहाँ दिखाया है कि जातिवाद किस प्रकार पुरानी मित्रता को भी
खा जाता है. उन्होंने क्लब के चौकीदार को
भी जातिवाद का सहारा लेते हुए दर्शाया है.
चौकीदार को भय है कि मिसराजी और दरोगाजी के विवाद के चलते उसे नौकरी से
निकाल दिया जाएगा. वह पाल साहब के पास आकर
अपनी जातिवादी भावना प्रकट करता है.
यथा.... “ हुजूर,
शास्त्रीजी आपके पडोसी है. आपका रोज का
उठना-बैठना है सरकार. और.... वह थोडा
हिचकिचाता है, फुरि झूठ की माफी मिले तो ... सुना है आप भी ‘बीसी’ हैं
सरकार.... तो मदद के लिए आपके पास... आप शास्त्रीजी से सिफारिश कर दें तो मेरी
नौकरी बच सकती है.”(5)
पाल
साहब जाति-पाँति पर विश्वास नहीं रखते हैं.
क्लब चौकीदार से कहते हैं कि उसे इस उम्र में इस प्रकार की जाति-पाँति की
बातें नहीं करना चाहिए. किसी प्रकार की
सहायता न पाकर चौकीदार गुस्से से बौखलाकर जातीय एकता का उदाहरण देकर पाल साहब को
जातिवादी न होने पर उल्टा-सीधा भी कहता है,
यथा... “यह
जो बिजली का पॅवर हाऊस देख रहे हैं, सामने.
हमारे टोले की जमीन पर ही बना है.
हमारा टोला मेहनत करके खानेवाली जातियों का टोला है. वे कहते थे
छोट भइयों का टोला. आज से
सत्रह-अठारह साल पहले बडकी जाति के एक मंतरी हुए थे बगलवाले गाँव में. मंतरी होते ही उन्होंने कसम खाई- हमारे
टोले का ‘हर’ वे खूँटी
पर टँगवा देंगे. यानी भूमिहीन कर
देंगे. काहे कि हम लोग उनसे दबते नहीं
थे. उनके यहाँ मजदूरी करने नहीं जाते
थे. चुनाव में उनको वोट नहीं दिय़ा
था. उन्होंने जो कहा था करके दिखा
दिया. हमें किसान से मजूर बना दिया.... तो
वे उनकी ऊँची पदवी पाकर, राजा दऊ के बराबर
होकर भी जाति-पाँति के ऊपर नहीं उठे. उसे
चभुआकर पकडे रहे. और आप एक दो नौकरी क्या
पा गए, सब भूल गए. एकदम खिलाफै हो गए...”(6)
इस
प्रकार ‘शिवमूर्त्ति’ ने ‘त्रिशूल’ में
जातिगत समस्याओं को अत्यंत सफलतापूर्वक चित्रण किया है.
संदर्भ :
1. शिवमूर्त्ति -
त्रिशूल पृ. सं. 29
2. शिवमूर्त्ति -
त्रिशूल पृ. सं. 26
3. शिवमूर्त्ति - त्रिशूल पृ. सं.
71-72
4. शिवमूर्त्ति -
त्रिशूल पृ. सं. 80-81
5. शिवमूर्त्ति -
त्रिशूल पृ. सं. 81
6. शिवमूर्त्ति -
त्रिशूल पृ. सं. 84