आधुनिक हिंदी उपन्यास और स्त्री-विमर्श
आधुनिक
हिंदी उपन्यास और स्त्री-विमर्श
प्रो. एस.वी.एस.एस. नारायण
राजू
साहित्य-सेतु, अप्रैल-जून 2014
ISSN No. 2348-6163
स्त्री साक्षात
शक्ति है। सृष्टि के विकास क्रम में उसका महत्वपूर्ण स्थान है। वह सौंदर्य, दया, ममता,
भावना, संवेदना, करुणा, क्षमा, वात्सल्य, त्याग एवं समर्पण की प्रतिमूर्ति है। इन्हीं
गुणों के कारण उसे देवी कहा जाता है।“यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता”: अर्थात् जहाँ
नारियों को मान सम्मान होता है, वहाँ देवताओं का वास होता है। प्राचीन काल से लेकर
वर्तमान काल तक भारतीय स्त्रियों की स्थिति में काफी उतार चढ़ाव आए हैं। वैदिक युग
में नारी का जीवन काफी उन्नत एवं परिष्कृत था। ऋग्वेद में स्त्री को यज्ञ में
ब्रह्रा का स्थान ग्रहण करने योग्य बनाया है। रामायण और महाभरत काल में स्त्रियों
का वर्णन विदूषियों के रुप में कम, गृहस्वामिनी के रुप में अधिक मिलता है। आधुनिक
नारी बाहरी तौर पर काफी आगे पहुँची है, लेकिन जितना पहुँचना चाहिए था वहाँ तक नहीं
पहुँच पाई है। स्त्री-विमर्श के युग में स्त्री की स्थिति में आये सब से
महत्वपूर्ण परिवर्तन यह है कि वह पुरुष के समान ही जीवन के विभित्र क्षेत्रों में
कार्यरत है, लेकिन इसके लिए उसे भीतर और बाहर दोनों ओर से टूटना पड़ता है। वह दिन
भर नौकरी करके घर लौटती है, तो उसे पारिवारिक दायित्व भी निभाना पड़ता है। इस संदर्भ
में मैत्रेयी पुष्पा जी का वक्तव्य यह है कि “पुरुष के लिए सबसे बडी चुनौती स्त्री ही है। उसको वश में
करने के लिए वह जिंदगी भर न जाने कितने प्रयास करता है कि किसी तरह औरत के वजूद को
तोड सके।”(1)
पुरुषों की निगाहों में स्त्रियाँ उपेक्षिता ही रही हैं। पुरुषों ने उनके स्वतंत्र
व्यक्तित्व के निर्माण के लिए कभी कोई सुविधा नहीं दी है। जब स्त्रियाँ मानवीयता
के लिए प्रतिवाद करती हैं तो उसकी स्वतंत्रता को नकारात्मक अर्थों में ही ग्रहण
किया जाता है। समाज में आज भी समूचे मूल्य पुरुष द्वारा निर्मित है। क्षमा शर्मा
के अनुसार “पुरुष
पचास औरतों के साथ संबंध रखकर अच्छा कहला सकता है, अपने घर लौट सकता है। स्त्री एक
प्रेम करके चरित्रहीन कही जा सकती है और अफसोस यह है स्त्री की उस छवि को बनाने
में न धर्मशास्त्र पीर्छ है न ही साहित्य।”(2)
आज की नारी अपनी शक्ति पहचान ली है। आज वह
राष्ट्र निर्माण में महत्वपूर्ण हिस्सेदारी निभा रही है। लेकिन यह संख्या अत्यल्प है
। नारियों के अधिकारों की रक्षा के लिए महान उत्तरदायित्व का निर्वाह उन प्रबुद्ध
स्त्रियों को करना होगा जिन्होंने समाज में अपना विशिष्ट स्थान बनाने में सकलता
प्राप्त की है। स्त्री-विमर्श, स्त्री की शोषण से मुक्ति चाहता है, ताकि वह
स्वतंत्र ढंग से जी सके और सोच सके। वह पूर्ण स्वाधीन हो। समाज की निर्णायक शक्ति
हो। कात्यायनी के अनुसार “स्त्री
विमर्श अथवा नारीवाद पुरुष व स्त्री के बीच नकारात्मक भेदभाव की जगह स्त्री के
प्रति सकारात्मक पक्षपात की बात करता है। वस्तुतः इस रुप में देखा जाए तो
स्त्री-विमर्श अपने समय और समाज के जीवन की वास्तविकताओं तथा संभावनओं की तलाश
करनेवाली दृष्टि है।” (3)
स्त्री-विमर्श के बारे में लता शर्मा कहती है कि “स्त्री विमर्श स्त्री को स्वयं को देखने – जाँचने- परखने का
पर्याय है। आज तक हम अपने बारे में अपनी आशाओं – आकांक्षाओं के बारे में जो कुछ भी
जानते हैं, किसी संत-महात्मा विचारक – मनीषी का लिखा पड़ा है। हम स्वयं को अपनी ही
दृष्टि से तौलने, परखने – यह नवीन आयाम है।” (4) स्त्री विमर्श से संबंधित मैत्रेयी पुष्पा का विचार इस
प्रकार है कि “नारीवाद
ही स्त्री विमर्श है, नारी की यथार्थ स्थिति के बारे में चर्चा करना ही स्त्री
विमर्श है।” (5)
स्त्री-चिंतन आज विश्व चिंतन की बहसे में
सबसे सशक्त चिंतन इसलिए है कि इस में अरबों, करोडों स्त्रियों का दमन, अन्याय एवं
उत्पीडन से मुक्ति की सोच निहित है। महिला संबंधित कानून के विशेषज्ञ और लेखक
अरविंद जैन कहते है कि “आज
के समय में औरतें बदलीं, पुरुष नहीं बदले। परिवार संस्था और विवाह संस्था यथातथ
है। परिवार में बहु की स्थिति बहुत ज्यादा नहीं बदली है। आज भी उसे संपत्ति का
अधिकार नहीं है न मायके में, न ससुराल में।” (6)
यह सर्वविदित बात है कि कोई भी रचना हो
स्त्री पात्र के बिना सोच भी नहीं सकते हैं, परंतु सवाल यह है कि किस प्रकार
चित्रित किया है। विमर्श के संदर्भ में विचार करते वक्त साधारणतः इन बिंदुओं के
आधार पर चर्चा करते हैं। 1. स्त्री-शोषण 2. संघर्षशील स्त्री 3. परंपरागत आचार
संहिता को चुनौती 4. सार्वजनिक भूमिका में स्त्री।
स्त्री-शोषण
: समकालीन हिन्दी उपन्यासकारों में विचारों की परिपक्वता और गहन मानवीय संवेदना
को उकेरने की कला में मैत्रेयी पुष्पा काफी चर्चित हैं। उनके उपन्यास ‘इदन्नमम’ में बुंदेलखंडी बोली की लय में जीवंत और धारदार भाषा के साथ ग्रामीज समाज में
उभरती स्त्री-चेतना की सशक्त अभिव्यक्ति हुई है। मैत्रेयी पुष्णा ने ‘इदन्नमम’ में प्रेम के माध्यम से उन भारतीय स्त्रियों को लेकर लिखा है जो पुरुष
प्रधान समाज में सदियों से तरह-तरह से अधिकार वंचित और काम शोषित होती आयी है। मंदा
की माँ प्रेम को भगा ले जानेवाला रतन यादव उपन्यास में कहीं प्रकट नहीं होता है।
उसका सिर्फ सूचित परिचय मिलता है। प्रेम का अपहरण करनेवाला रतन यादव का एक मात्र
उद्देश्य उसकी संपति हथियाना है। लेकिन जब वह घर से गायब होती है तब पुरुष ही नहीं
स्त्री वर्ग भी उस पर कामवासना का आरोप लगाती हैं। “अपहरन
काहे। अपहरन होता बऊ का न हो जाना। जे भी तो भर ज्वानी में विधवा हुई थीं। जे कहो
कि मस्तानी हती। ज्वानी की मारी। सो बिना खसम के रहाई नहीं आई।”(7) एक विधवा का वेश्या या भिक्षुणी बनना इस समाज को बर्दाश्त हो सकता है।
एक विधवा को सती हो जाने के लिए यह समाज मजबूर कर सकता है लेकिन दूसरे विवाह के
लिए नहीं, क्योंकि परिवार की प्रतिष्ठा कानून से भी ऊपर है। ‘इदन्नमम’ में कुसुमा का उदाहरण भी स्त्री शोषण की
चरम सीमा है। कुसुमा गरीब की लड़की होने के कारण उसे छोड़ देते हें। पत्नी का
अधिकार उससे छीन लिए थे। लेकिन जब कुसुमा दाऊ जी की वजह से गर्भवती हुई तो उसे
कुलटा कहकर पीटने का अधिकार उसने नहीं छोड़ा था। “खून पी
जाऊँगा इस दुष्टनी का या पीट-पीट कर गाँव से बाहर कर दूँगा कुलटा को।” (8) इतना होने के बावजूद भी बच्चे को जन्म देती है। अंत में दाऊ जी की
मृत्यु के बाद वह सफेद वस्त्र धारण कर लेती है।
‘शाल्मली’ नासिरा शर्मा का बहुचर्चित
उपन्यास है। शादी के बाद शाल्मली के जीवन में एक ही ध्वनि गूँजती थी कि नरेश पति
है और वह पत्नी। स्वामी और दासी का संबंध शाल्मली और नरेश के बीच एक मजबूत दीवार
का रुप धारण करने लगी थी। नरेश हमेशा यह वाक्य कहता था कि “तुम
ठहरी एक आधुनिक विचार की महिला.... विचारों में स्वतंत्र, व्यवहार में उन्मुत्त्क,
तुम्हारे संस्कार....”(9) यह वाक्य नरेश हमेशा रटता रहता है।
नरेश का यह वाक्य सुनते-सुनते शाल्मली को आधुनिक शब्द से घृणा होने लगी थी। शाल्मली
समय से पहले जीवन संघर्ष में खूद पड़ी थी। कम उम्र में ही कामकाजी लड़की बन चुकी
थी। उम्र से ज्यादा उस में एक गंभीरता आ चुकी थी। वह नरेश को पूरी तरह समझ गयी थी।
लेकिन सवाल समझने का नहीं, उसके नकारात्मक व्यक्तित्व में अपने विकास द्वारा
ढूँढ़ने का था। नरेश की राय में घरेलू काम पत्नी की जिम्मेदारी है। अपने दोस्तों
के लिए भोजन बनाने पर भी उसमें हाथ बाँटने को नरेश तैयार नहीं होता है। उसकी
दृष्टि में पत्नी हमेशा पति के अधीन रहना चाहिए। शाल्मली बुखार होने के बावजूद भी
नरेश के दोस्तों के लिए खाना बनाकर देती है। नरेश की पत्नी की बीमारी से अधिक
दोस्तों की चिंता ही सताती है। सारे दोस्त जाने के बाद काम में कुछ मदद करने के
लिए अनुरोध करने से वह कहता है कि “घर औरत का होता है, वह
जानो। कमाना मर्द का काम है, वह मैं करता हूँ। आफिस के काम में तुम्हारी सहायता
लेता हूँ कया?..ओ...के...गुड नाईट।”10
समस्याओं के बीच ही स्त्रियों का
सफर शुरु होता है और अंत भी। आज के बदलते दौर में जीवन मूल्य बदल रहे हैं।
स्त्रियों के जीवन में कुछ समस्यायें ऐसी हैं जो सामाजिक व्यवस्था से उत्पन्न हुई
हैं और कुछ समस्यायें ऐसी हैं जो स्त्री होने के कारण उत्पन्न हुई हैं। ये
समस्यायें पितृसत्तात्मक व्यवस्था द्वारा दी गई हैं। सामाजिक दृष्टिकोण नहीं
बदलेगा तो समस्यायें बनी रहेगी।
संघर्षशील स्त्री : मैत्रेयी पुष्पा के समूचे कथा साहित्य में नारी अपनी अस्मिता
और अस्तित्व के लिए संघर्ष करती दिखाई देती है। यह संघर्ष समाज से है, रुढियों से
है, थोपी गयी परंपराओं से है और पुरुष की अहं में लिपटी मानसिकता से है। मैत्रेयी
पुष्पा की नारियाँ स्वयं ही अपनी लड़ाई लड़ती हैँ और पुरुष के वर्चस्व को तोडने का
प्रयास करती है। ‘इदन्नमम’ उपन्यास की
नायिका मंदा अकेले ही सारे पुरुष समाज से टकराती है। अपने ऊपर हो रहे अन्याय और
अत्याचार को वह चुप सहन नहीं करती, अपितु उसका मुकाबला करती है। ‘इदन्नमम’ में परित्यक्ता कुसुमा दाऊ जी के साथ संबंध
रखना बहुत बड़ा कदम है। इस संबंध में कुसुम् मंदा से कहती है कि “बिन्नु यह जल निर्मल है या मैला? पवित्र है या पाप
का? इमरत है निस? नहीं जानते हम।
तुम्हारी रामायन में लिखा भी होगा तो लिखनेवाला यह नहीं जानता है कि आदमी जब
प्यासा होता है, प्यास से मर रहा होता है तो कहाँ देखता है, कहाँ सोचता है, कहाँ
करता हैं कोई भेद? कोई अंतर?”(11) कुसुमा के मन में दाऊ जी के साथ अपने संबंध को लेकर कोई अपराधबोध की
भावना नहीं है। इसलिए जब वह गर्भवती होती है तब भी वह डरती नहीं है। “जैसे ही पूछा कि भाईयों का कौल खाकर बना कुसुमा, यशपाल कबहूँ नहीं आया
तेरे हिरकाँय(पास)? कुसुमा भाभी ने घूँघट में एक नजर सास को
देखा, फिर सबको निहारा और सिर हिला दिया, अर्थात् नहीं, कभी नहीं।”(12) कुसुमा के मन में लेशमात्र भी अपराधबोध नहीं। पाप-पुण्य, सही-गलत की
परिभाषायें उसे झूठ लगती है। कुसुमा के चरित्र में संघर्षशील नारी का रुप उकेरा
गया है।
सूर्यबाला का प्रमुख उपन्यास ‘यामिनी’
की कथा स्त्री मन की तीव्र संवेदनात्मक धरातल से विकसित होती है। यामिनी का मानसिक
संघर्ष इस में चित्रित किया है। यामिनी मामूली स्त्री नहीं है, वह अपने पति विश्वास
से जो प्यार चाहती है वह शारीरिक से ज्यादा मानसिक है। विश्वास मानता है कि वह
अपनी पत्नी की सारी ख्वाहिशें पूरी कर रहा। इससे ज्यादा देने के लिए उसके पास कुछ
भी नहीं है। यामिनी पूछती है कि “तो मेरी सबसे बडी विडंबना
यही है कि मैं आपके जीवन में तब आई जब आपके पास देने लेने के लिए कुछ है ही नहीं।”(13) यह सुनकर विश्वास को गुस्स आता है। उसे लगता है कि यामिनी ने उसके
पुरुषत्व को चुनौती दी है। लेकिन यामिनी स्पष्ट करती है कि “सुनिए मैं
शरीर की बात नहीं कर रही। आपके शरीर ने मुझे बहुत कुछ दिया, लेकिन पुरुषत्व को
सिर्फ शरीर की सीमा में बाँध कर नहीं देखती। आप भी ऐसा कर उसकी बेइज्जती मत कीजिए।
पुरुषत्व की सीमा शरीर से कहीं ज्यादा भव्य होती है। मैं उसी भव्यता और ऊँचाई की
बात कह रही हूँ।”(14) यामिनी की बात को समझने की क्षमता विश्वास में
नहीं है। दोनों के संबंध में जो तनाव एवं संघर्ष को सूर्यबाला ने संवादों के जरिए
व्यक्त किया है।
परंपरागत आचार संहिता को चुनौती :’इदन्नमम’ में कुसुमा ने परंपरागत आचार संहिता को चुनौती देकर नारी जीवन की सार्थकता को
स्थापित किया है। कुसुमा भाभी के चरित्र द्वारा मैत्रेयी पुष्पा ने नारी की दृढ
संकल्पों से निर्मित व्यक्तित्व को प्रस्तुत किया है । पति यशपाल द्वारा परित्यक्ता
कुसुमा जन्म से रुग्ण दाउजी से प्रेम करती है। “बिन्नु सौ बातों की एक बात है, नाते संबंध का नाम बनाएँ, गढे
बेकार है। साँचा नाता तो प्यास और पानी का है।”(15)
कुसुमा भाभी सामाजिक वर्जनाओं पर खुली चुनौती बनकर उभरती है। इसके बदले उसे
प्रबल विरोध सहना पड़ता है। परंतु परंपरागत आचार संहिता के विरुद्ध वह मानती है कि
जब देह धारण की है तब इसकी आवश्यकताओं की पूर्ति अनिवार्य है। हक है इस देह का।
कुसुमा अपने प्रेम के फलस्वरुप प्राप्त संतान पर गर्व भी करती है। “हमारे कुँवार तो नहीं हैं
ब्याहे की संताना। यह बात तो हम गा गाकर कह रहे हैं।”(16)
किशोरी मंदा के साथ कैलास मास्टर बलात्कार करता है तो कुसुमा भाभी उसको सहारा देती
है। “अपराधी तो वह है, जिसने यह अजस...छल – बल से कुकरम..
छुतैला और अपवित्तर भी हुआ- बढ़िया कैलास मास्टर, उसकी जान हुई मैली, जो हम धोखे
से करती है हमला।”(17) स्त्री और पुरुष दोनों का मान-सम्मान
बराबर होना चाहिए। पुरुष द्वारा बलात्कार होने पर स्त्री अपवित्र मानी जाती है,
लेकिन पुरुष नहीं। कुसुमा भाभी इसके खिलाफ आवाज़ उठाती है। मंदा से वह कहती कि मन
की पवित्रता ही सर्वोपरि है। नासिरा शर्मा ‘कृत ठीकते की
मँगनी की नायिका महरुख भी पुरुष वर्चस्ववादी अहंकार से आहत होती है। महरुख समय से
समझैता करना पसंद नहीं करती है। परिस्थितियों से संघर्ष करती हुई रुढिगत तथा
परंपरागत आचार संहिता को चुनौती देकर अपनी जिंदगी का निर्णय खुद लेती है। वास्तव
में मनुष्य की सबसे बड़ी पूंजी यही है।
सार्वजानिक भूमिका में स्त्री : ‘ठीकरे की मँगनी’ में लेखिका नासिरा शर्मा ने महरुख की संघर्ष यात्रा का चित्रण किया
है। महरुख ने गाँव की औरतों का दिल जीत लिया था। वह कम़जोर बच्चों को शाम को घर
में बुलाकर पढ़ाती थी। महरुख के सामने जिंदगी की सिर्फ एक मंजिल थी, वह थी स्कूल।
अलका यह आत्मसमर्पण देखकर डॉ. विमला कहती है कि “मेरा विश्वास है कि तुम जरुर कोई ऐसी महान आत्मा हो, जो बिरले
ही धरती पर जन्म लेती है।”(18) ‘ठीकरे
की मँगनी’ की महरुख में अकेलेपन की पीडा, संत्रास, कुंठा
नहीं है। उसे इस बात का अहसास है कि उसकी जिंदगी आगामी पीढ़ी के लिए एक उदाहरण है।
महरुख का कथन समकालीन नारी की सोच को दिखाता है जो समय की धारा में, भविष्य के लिए
नयी संभावनाओं के द्वारा खोलकर स्त्री को एक स्वतंत्र अस्थित्व प्रदान करती है।
सार्वजनिक भूमिका में स्व को अर्जित करने में एक स्त्री को संघर्ष के जिस कठिन
रास्ते पर चलना पड़ता है वह पूर्ण रुप से महरुख के माध्यम से दर्शाया गया है।
आधुनिक हिंदी उपन्यासों में स्त्रीवादी लेखिकों ने विभिन्न पात्रों के माध्यम से
वर्तमान सामाज में स्त्री के बारे में यथर्थ चित्रण किया है।
मैं अंत में मैत्रेयी पुष्पा
के इन शब्दों से समाप्त करना चाहता हूँ।“आनेवाली सदी की माँग है कि पुरुष मानसिकता में परिवर्तन आए और
वह बेझिझक किसी भी आशंका और असुरक्षा से मुक्त होकर आती हुई स्त्री का स्वागत करे।
मेरे विचार से यह सदी स्त्री के अस्थत्व की थी, अगली शताबदी उसके व्यक्तत्व की
होती ।”(19)
संदर्भ :
1.चर्चा हमारी - मैत्रेयी पुष्पा - पृ.सं.21
2.स्त्रीत्ववादी विमर्श – समाज और साहित्यः क्षमा शर्मा – पृ.सं,101
3.हंस – मार्च 2000 – पृ.सं.45
4.औरत अपने लिए – लता शर्मा - पृ.सं.149
5.हंस – अक्तूबर 1996 – पृ,सं.75
6.स्त्री आकांक्षा के मानचित्र – गीताश्री – पृ.सं.60
7.मैत्रेयी पुष्पा – इदन्नमम – पृ.सं.16
8. मैत्रेयी पुष्पा – इदन्नमम – पृ.सं.140
9.नासिरा शर्मा – शाल्मली – पृ.सं.11
10. नासिरा शर्मा – शाल्मली – पृ.सं.33
11. मैत्रेयी पुष्पा – इदन्नमम – पृ.सं.92
12. मैत्रेयी पुष्पा – इदन्नमम – पृ.सं.159
13.यामिनी कथा – सूर्यबला – पृ.सं.32
14. यामिनी कथा – सूर्यबला – पृ.सं.33
15. मैत्रेयी पुष्पा – इदन्नमम – पृ.सं.24
16. मैत्रेयी पुष्पा – इदन्नमम – पृ.सं.165
17. मैत्रेयी पुष्पा – इदन्नमम – पृ.सं.108
18.नासिरा शर्मा – ठीकरे की मँगनी – पृ.सं.146
19.खुली खिडकियाँ – मैत्रेयी पुष्पा – पृ.सं.115