मूल्य

मूल्य 


डॉ.एस.वी.एस.एस.नारायण राजू 

प्रजा सहायता

स्वतंत्रता दिवस विशेशांक - 2002


वर्तमान समाज में ‘मूल्य’ के बारे में चर्चा आने से स्वतंत्रता पूर्व भारत में मूल्यों की स्थिति और आज की स्थिति से तुलना करके, मूल्यों का हनन हो रहा है कहके चिन्ता प्रकट करते रहते हैं। स्वतंत्रता दिवस के संदर्भ में एक और बार ‘मूल्य’ के बारे में विचार करने की जरूरत है। हम हमेशा वर्तमान समाज के विभित्र क्षेत्रों में मूल्यों की गिरावट पर आँसू बहाते हैं, परन्तु यह कभी भी नहीं सोचते हैं कि वास्तव में ‘मूल्य’ कया होते हैं? और वे समय - समय पर क्यों परिवर्तित होते रहते हैं ? ध्यान देने की बात यह है कि समाज की गतिशील परिस्थितियों तथा बदलते हुए युगीन सत्य के अनुरुप मूल्यों का बिगड़ना बनना और परिवर्तित होना एक निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है। युगीन स्थितियों, मनःस्थितियों और आंतरिक आवश्यकताओं के अनुरूप मूल्यों के क्षेत्र में भी परम्परा के स्थान पर नवीनता का आग्रह सर्वत्र दिखाई पड़ता है। पारंपरिक एवं जर्जर मूल्यों के स्थान पर विकास निर्भर रहता है। इस संदर्भ में यह जानना आवश्यक है कि मूल्य का स्वरूप क्या है ? ‘मूल्य’ अपने आप में क्या है? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए यह न भूलना होगा कि जब ‘मूल्यों’ की बात करते हैं तो सहज ही नीति शास्त्र का शब्द जब मानवीय संवेदनाओं के गहन स्तरों के साथ जुडता है तो मानवीय संवेदनाओं की तरह उसकी सीमाएं भी फैल जाती हैं। मानव को उसके पूर्ण अस्तित्व में स्वीकार करके ही मूल्य की कल्पना संभव हो पाती है , क्योंकि मूल्य की स्थिति किसी वस्तु में न होकर मानव में है। मानव ही मूल्यों का निर्घारण या संचालन करता है और उसी की आवश्यकताओं के अनुरूप मूल्य बनते या बिगड़ते हैं। कोई भी वस्तु अपने आप में मूल्यवान नहीं होगी, बल्कि वस्तु से मिलने वाला सुख या आनंद अपने आप में एक मूल्य होता है। मूल्य कोई मूर्त वस्तु नहीं जिसे हम देख सके बल्कि मूल्य अपने आप में एक धारणा है, एक अनुभव है। कोई भी वस्तु मूल्यवान हो सकती है, लेकिन वह अपने में मूल्य नहीं हो सकती। मूल्य अमूर्त है , जिसे व्यक्ति भोगता है, झेलता है और जिसे वह अनुभव के स्तर पर जीता है। यह अनुभव इंद्रिय गम्य न होकर आत्मा या कल्पना का अनुभव होता है, जो किसी भी वस्तु को मूल्यवान बना देता है। मूल्य का अस्तित्व व्यक्त्ति की इच्छा पर निर्भर होता है । विचारों तथा इच्छाओं में वैचित्र्य तथा मानव की जटिलता तथा उससे उत्पत्र संघर्ष के समान मूल्यों में भी संघर्ष की स्थिति रहती है। हेनरी असबर्न टेलर ने मूल्य की परिभाषा करते हुए कहा - मूल्य आत्म प्रदर्शन है ( वेल्यू ईज वेनटि ) । डॉ . कुमार विमल ने मूल्य के संबंध में कहा है “मानविकी के संदर्भ में मूल्य का अर्थ है जीवन दृष्टि या स्थापित वैचारिक इकाई जिसे हम सक्रिय ‘नार्म’ कह सकते है।" अतः हम मूल्य की परिभाषा इस प्रकार दे सकते हैं कि “ मूल्य वह वैचारिक इकाई है , जिसे आधार बनाकर व्यक्ति अपना जीवन जीता है और उसे आत्मोपलब्ध होती है । " 



इससे यह स्पष्टतः विदित होता है कि जीवन के समग्र स्वरूप के विश्लेषण के लिए समकालीन जीवन के विविध क्षेत्रों में पाये जाने वाले मूल्यों का मानवीय एवं सामाजिक धरातल पर निरुपण करना अनिवार्य है। मूल्यों को किसी एक क्षेत्र में संलग्न न रखकर संदर्भ में पूर्व निर्धारित मूल्यों को ही सत्य न मानकर वर्तमान समाज की गतिविधियों तथा समस्याओं के अनुरूप नए मूल्यों को स्वीकारने तथा समाज निरपेक्ष मूल्यों को त्यागने में संकुचित न रहना चाहिए. समय और परिस्थितियों के अनुरूप सर्वजनहित के अनुकूल मूल्यों को ही अपनाना है। स्वतंत्रता दिवस के संदर्भ में इस विषय पर सोचकर हर नागरिक सही मूल्यों को अपनाकर आगे बढ़ने की आवश्यकता है । 

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